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अध्याय -6
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सृष्टि कर्तृत्व विचार जैन दर्शन के अनुसार यह संसार कुछ द्रव्यों से मिल कर बना है, ये हैं जीव और अजीव। अजीव द्रव्य पांच प्रकार का है, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश। इस प्रकार ये षट द्रव्य हैं जिनसे सम्पूर्ण संसार की सृष्टि हुई है, संसार में इनके अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं। द्रव्य का लक्षण है सत् अर्थात् अस्तित्व, और जैन दर्शन के अनुसार सत् का लक्षण है-उत्पाद, व्यय
और ध्रौव्य अर्थात् उत्पत्ति विनाश और स्थिरता। प्रत्येक द्रव्य में ये तीनों प्रक्रियायें प्रतिक्षण होती रहती हैं। द्रव्य, गुण और पर्याय (अवस्था) से युक्त होता है। उसमें जो गुण होते हैं वे तो ध्रुव अर्थात् स्थायी होते हैं और पर्याय उत्पत्ति और विनाशशील होती है। यदि स्वर्ण के एक आभूषण हार को तुड़वा कर कंगन बनवा लिये जायें तो स्वर्ण की हार अवस्था का विनाश कंगन पर्याय की उत्पत्ति और स्वर्ण गुण ध्रौव्य रहता है। जैन दर्शनाचार्यों ने इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। श्री भागेन्दु कृत महावीराष्टक स्तोत्र में कहा गया है
"यदीये चैतन्ये मुकुर इव भावश्चिदचितः,
समं भांति ध्रौव्य व्यय जनि लसन्तोऽन्तरहिता।।" । अर्थात् "जिनके केवलज्ञान में ध्रौव्य, व्यय और उत्पत्ति सहित अनन्त चेतन
और अचेतन पदार्थ दर्पण में स्पष्ट प्रतिबिम्बित होने के समान एक साथ प्रतिभासित होते हैं।" इस प्रकार संसार के समस्त पदार्थ त्रयात्मक (ध्रौव्य व्यय उत्पत्ति युक्त) हैं, उन्हें उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक भी कह सकते हैं और गुण पर्यायात्मक भी। और प्रकारान्तर से यह भी कह सकते हैं कि द्रव्य नित्य भी होते है और अनित्य भी। कविवर 'भैया' ने द्रव्य के इस त्रयात्मक रूप को कितनी सरल भाषा में स्पष्ट कर दिया है
"यह संसार अनादि को, यहीं भात चल आय।
उपजै विनशै थिर रहैं, सो सब वस्तु स्वभाय।।" वे षट द्रव्य जिनसे सम्पूर्ण सृष्टि निर्मित है, अनादि और अनन्त हैं, सबका
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