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चार खूट अर्थात् संसार की यही गति है।
मनबत्तीसी में मन अर्थात् चित्त के लिये आठ पसेरी (आठ पसेरी=मन) का प्रयोग किया गया है। मन के दोनों अर्थ है चित्त तथा भार की एक माप=मन (40 सेर अतः आठ पसेरी=मन अर्थात् चित्त।
"कहा मुंडाये मूंड बसे कहा मट्ठका। कहा नहाये गंग नदी के तट्ट का।। कहा कथा के सुने वचन के पळ का। जो बस नाही तोहि पसेरी अट्ठ का।।140
भैया भगवतीदास के काव्य में बहिर्लापिका तथा अंतर्लापिका भी हैं इनका लक्षण कवि केशव ने इस प्रकार बताया है
"उत्तर बरण जु बहिरै बहिर्लापिका होय।। अन्तर अन्तापिका यह जानै सब कोय।।41
छन्द में कुछ प्रश्न किये जाते हैं जहाँ उत्तर के अक्षर बाहर से निश्चित किये जायें वहाँ बहिर्लापिका और जहाँ उत्तर के अक्षर उसी छंद में सम्मिलित हों उसे अन्तापिका कहते हैं। कवि केशव ने बहिर्लापिका और अन्तर्लापिका के उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं। लाला भगवान दीन ने इनको अलंकार कहा है।42 इनका मूल हमें विक्रमी की चौदहवीं शताब्दी के कवि अमीर खुसरो की पहेलियों में मिलता है
"एक थाल मोती से भरा। सबके सिर पर औधा धरा।। चारों ओर वह थाली फिरे। मोती उससे एक न गिरे।।"
(उत्तर आकाश)43 "चार महीने बहुत चलै औ आठ महीने थोरी। अमीर खुसरो यों कहै तू बूझ पहेली मोरी।।"
(उत्तर-मोरी)44 इनमें से प्रथम को बहिर्लापिका तथा द्वितीय को अन्तर्लापिका कह सकते हैं। भैया भगवतीदास कृत आश्चर्यचतुर्दशी में एक छंद को बहिर्लापिका तथा दो छंदों को अंतर्लापिका लिखा गया है, जबकि परीक्षण करने पर ज्ञात हुआ कि जिसको बहिर्लापिका लिखा गया है वह छंद भी अंतापिका का ही उदाहरण है जो यहाँ प्रस्तुत है"कहा सरसुति के कंध ? कहो छिन भंगुर को है ?।
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