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________________ निश्चय ही हृदय-पक्ष क्षीण तथा बुद्धि-पक्ष सबल है। उनके द्वारा रचित 'चित्र - काव्य' का "कृतियों का परिचय" अध्याय के अन्तर्गत विवेचन किया जा चुका है। परमात्मशतक में कवि ने कुछ ऐसी शैलियों का प्रयोग किया है। इसमें रचना काल का सम्वत् सीधे सरल ढंग से अंकों में न बताकर कवि ने कितनी चमत्कारपूर्ण शैली में बताया है "जुगल चन्द की जे कला, अरु संयम के भेद । सो संवत्सर जानिये, फाल्गुन तीज सुपेद। "37 अर्थात् चंद्रमा की सोलह कलाओं के युगल अर्थात् बत्तीस और संयम नियमों के सत्रह भेद, इस प्रकार सम्वत् 1732 वि० का संकेत दिया गया है। कहने का तात्पर्य है कि फाल्गुन शुक्ल तृतीया सम्वत् 1732 को इस कृति की रचना की गई। इस प्रकार शब्दों के माध्यम से अंकों को व्यक्त किया गया है। एक अन्य दोहे में अंकों के माध्यम से कुछ शब्दों के अर्थ खींचकर निकाले गये हैं " जे लागे दशबीस सों, ते तेरह पंचास । सोरह बासठ कीजिये, छांड चार को वास ।। "38 इसका अर्थ इस प्रकार है- जो दश बीस-तीस से, अर्थात् तृष्णा तृप्त करने में लगे रहे वे तेरह पचास = त्रेसठ (तरेसठ ) अर्थात् शठ हैं। अतः वे सोलह बासठ = अठहत्तर (अठहत्तर) अर्थात् आठ कर्मों को नष्ट अर्थात हत कर इस भवसागर से पार हो (तर) और चार गतियों (देव, मुनष्य, तिर्यंच, नरक) का वास छोड़ दें । यहाँ कवि ने संख्यावाचक शब्दों से अन्य अर्थ द्योतित करने की योजना अपनाई है। जैन धर्म में चार संख्या के कितने ही समूह होते हैं जैसे चार गति, चार कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) चार अनन्त चतुष्टय (अनन्तदर्शन, ज्ञान, सुख और वीर्य) कवि ने एक ही दोहे में चार शब्द का चार बार प्रयोग किया है और प्रत्येक बार वह भिन्न-भिन्न समूहों का द्योतक है 'चार माहिं जोलों फिरै, धरै चार सों प्रीति । । तोलों चार लखै नहीं, चार खूंट यह रीति । । ''39 अर्थात् जीव जब तक चार गतियों का भ्रमण करता रहता है और चार कषायों में प्रीति रखता है, जब तक चार अनन्त चतुष्टय को प्राप्त नहीं कर सकता, (140) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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