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अन्य पुरुष में भूतकालिक क्रियाओं के विभिन्न रूप दृष्टिगोचर होते हैं, यथा- ईकारान्त, नी (कीनी), न्ही (कीन्ही), ओकारान्त तथा अन्तिम वर्ण में स्वर को लोप करके तथा 'यो' लगाकर
मृग करि श्रवण सनेह देह दुरजन को दीनी। निज पुत्री दीन्ही परनाय। इहि कीन्हों जैसे नटकीस। जडपुर को मुह कियो नरेस। कोप्यो मोह महा बली।
भविष्यत्काल- उत्तम पुरुष की भविष्यत्कालिक क्रियायें एकारान्त, ऐकारान्त अथवा 'इहो' लगाकर बनाई गई हैं
अब या को हम परसें नाही। निजबल राज करै जग माहि।
जो ऐहै या दाव में तौं मैं करिहों भोर। मध्यम पुरुष में भविष्यवत्कालिक क्रियायें 'इहो', 'हुगे', और 'बो' लगाकर बनाई गई हैं, यथा
देखे सों बचिहो पुनि नाहिं। तुमहू सब जन दौरिके जाय मिलहुग धाय।
बहुर्यो फिर मिलबो नाहिं। अन्य पुरुष में ये क्रियायें 'गे' अथवा 'हैं' लगाकर बनाई गई हैं, यथा
ते तोहि सौज करेंगे। देहैं सजा बहु ऐसी भई।
जैन कवियों की भाषा सामान्यतः प्रसाद गुण युक्त है। भैया भगवतीदास जी की कृतियों की भाषा भी प्रसादगुण से ओतप्रोत है। जैन-धर्म के पारिभाषिक शब्दों के कारण कहीं-कहीं बोधमम्यता में बाधा अवश्य पड़ गई है अन्यथा उसमें कहीं भी क्लिष्टता अथवा जटिलता नहीं है। भाषा का एक अन्य गुण 'ओज' भी भैया जी की रचनाओं में कूट-कूट कर भरा हुआ है। उनके पद ओजस्विता से परिपूर्ण हैं। चेतनकर्मचरित्र में चेतन तथा मोह के परस्पर युद्ध का वर्णन होने से वीररस की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है। वहाँ उनकी भाषा ओज से परिपूर्ण युद्ध वर्णन के उपयुक्त है। द्रष्टव्य है एक उदाहरण
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