________________
स्त्रीलिंग संज्ञाओं में 'इन' तथा 'ईन' प्रत्यय के योग से बहुवचन बनाये गये हैं, यथा
“इन्दिन के सुख में मगन रहै आठो जाम।
दासीन के संग खेल खेलत अनादि बीते।।" क्रिया रूप
भैया भगवतीदास जी की कृतियों में क्रियाओं का प्रयोग प्रायः ब्रजभाषा की प्रवृत्ति के अनुसार हुआ है। वर्तमान काल उत्तम पुरुष के साथ उकरान्त क्रियायें दृष्टिगत होती है, यथा
प्रणमूं परम देव के पाय। इसके अतिरिक्त 'अत' अथवा 'अतु' लगाकर भी रूप बनाये गये हैं, यथा
बांध मंगावत हों तुम तीर।
"हेतु हेतु तुअ हेतु कहतु हों रूप गह।" मध्यम पुरुष में क्रिया के विभिन्न रूप दृष्टिगत होते हैं, यथा- ऐकारान्त, 'अत' तथा 'अतु' प्रत्यान्त
मूढ़ क्यों जन्म गमावै। अबके सभारितैं पार भले पहुंचत हौं।
तू कछु भेद न बूझतू रंचक। अन्य पुरुष में भी क्रिया के विभिन्न रूप दृष्टिगत होते हैं अत, अतु, हि तथा ऐकारान्त, यथा
सोवत महल मिथ्यात में। ये अपने अपने रस को नित पोखतु हैं। ताकी भगति करहि मन लाय।
रसना के रस मीन प्राण पल माहिं गमावै। उत्तम पुरुष में एकारान्त तथा ओकारान्त क्रिया रूप प्रयुक्त हुए हैं, यथा
तब मैं पाप किये इहि संग।
मैं जानो सब मेरो देश। मध्यम पुरुष में भूतकालिक क्रियाएं ईकारान्त, एकारान्त तथा ओकारान्त हैं
जिय ! तुमने सांची कही। ताकी तुम तीर आये। अरे तैं जु यह जन्म गमायो रे।
(135)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org