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पवन > पौन
वचन > वच विनय > बिनै
लक्ष्मी > लच्छि व्यथा > विथा
सम्यक्त्व > समकित भैया भगवतीदास की कृतियों में कुछ छंद अरबी फारसी शब्दों से बोझिल है अतः उनका 'टोन' फारसीमय हो गया है। इसके अतिरिक्त उनका गुजराती भाषा पर भी पर्याप्त अधिकार था, इसका प्रमाण उनका गुजराती भाषा में लिखा गया एक छंद है।35 इसके अतिरिक्त कहीं-कहीं 'नकार' के स्थान पर 'णकार' के प्रयोग से उन पर राजस्थानी तथा गुजराती प्रभाव दृष्टिगोचर होता है और यह स्वाभाविक भी है क्योंकि आगरा की सीमाएं एक ओर से ब्रजप्रदेश का स्पर्श करती हैं तो दूसरी ओर राजस्थान का। उदाहरणार्थ
राखण, धणो, तणो, जाणे,
उनकी भाषा में 'जू' लगाने की प्रवृत्ति भी दृष्टिगोचर होती है, जिसे बुंदलेखंडी का प्रभाव माना जा सकता है, यथा
"जिन राज जू ने यातें कह्यो। सर्वज्ञ जू ने पुग्गल प्रमाणु प्रति। ब्रह्मा जू की सृष्टि को चुराय चोर ले गये।"
किसी भी कवि की भाषा का विवेचन करते समय उनके द्वारा प्रयुक्त संज्ञा, सर्वनाम, कारक तथा क्रिया रूपों का अध्ययन वांछनीय है, अत: यहाँ भैया भगवतीदास की भाषा का इसी दृष्टि से अध्ययन किया जा रहा हैसंज्ञा रूप
ब्रजभाषा में व्यंजनान्त संज्ञाओं में 'अन' प्रत्यय जोड़कर बहुवचन बनाया जाता है। यह प्रवृत्ति भैया भगवतीदास की भाषा में बहुत अधिक दृष्टिगत होती है, यथा
"संसारी जीवन (जीवों) के करमन (कर्मों) को बंध होय।" "धूमन के धौरहर देख कहा गर्व करै।
सरन की नहिं रीति अरि आये घर में रहे।" कवि ने 'अन' के स्थान पर 'अनि' प्रत्यय का प्रयोग भी किया है, यथा
"इतने पदार्थनि को कायधर मानिये। तोलों तोहि गन्थनि में ऐसे के बतायो है।।"
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