SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाषा प्रत्येक कवि भावाभिव्यक्ति के लिये किसी भाषा को अपनाता है। भाव यदि काव्य की आत्मा है तो भाषा उसका शरीर है। सुन्दर भावों की अभिव्यंजना के लिये कवि का भाषा पर पूर्ण अधिकार होना आवश्यक है। समर्थ कवियों की भाषा उनकी भावानुगामिनी होती है जो उनके अभीष्ट अर्थ को अभिव्यक्ति देती चलती है। भैया भगवतीदास ने भावाभिव्यंजना के लिये उत्तर प्रदेश की तत्कालीन जनभाषा को अपनाया है, जिसे हम ब्रजमिश्रित हिन्दी खड़ी बोली का विकसित होता हुआ रूप कह सकते हैं। वे संस्कृत तथा प्राकृत के विद्धान थे, अरबी फारसी का उन्हें पर्याप्त ज्ञान था अतः उनकी भाषा में तत्सम, तद्भव, सामान्य बोलचाल के तथा विदेशी सभी प्रकार के शब्दों का प्रयोग हुआ है। उदाहरण के लिये कुछ शब्दों की सूचियाँ यहाँ दी जा रही हैं। तत्सम शब्द . भैया भगवतीदास जी की अनूदित तथा दर्शन प्रधान रचनाओं में संस्कृत के तत्सम शब्दों का ही अपेक्षाकृत अधिक प्रयोग हुआ है। शेष रचनाओं में भी तत्सम शब्दों का बाहुल्य है। ऐसे कुछ शब्दों की सूची यहाँ प्रस्तुत हैअंखडित, अंगज, अवक्तव्य, अस्ति, उपशम, उपेक्षा, कंचन, तार्क्ष्य, द्रव्यगुण, दर्शन, नास्ति, निर्मल, नीलोत्पल, परमानन्द, प्रत्याख्यान, भ्रामक, मिथ्यात्व, मीन, मोक्ष, वज्र, वर्जित, विद्यमान, विवेक, वृषभ, व्योम, शुद्धि, शून्य, शुभ्र, श्रावक, षट, सयंम. सप्तम, सिद्ध, सृष्टि, सुरपति। तद्भव शब्द प्रयोग में आते-आते बहुत से शब्द अपने मूल रूप से भिन्न हो जाते हैं। भैया भगवतीदास ने ऐसे तद्भव शब्दों का बहुलता से प्रयोग किया है। ऐसे कुछ शब्दों की सूची यहाँ प्रस्तुत हैअचरज < आश्चर्य, अपछरा < अप्सरा, आतम < आत्म, उवझाय < उपाध्याय, ऊरध < ऊर्ध्व, करतब < कर्तव्य, कूख < कुक्षि, चारित < चारित्र, जुझार < युद्धकार, तत्ता < तप्त, धूम < धूम्र, निरवाह < निर्वाह, पच्छिम < पश्चिम, परमाद < प्रमाद, परसाद < प्रसाद, पुहुमि < पृथ्वी, प्रानी < प्राणी, बरनन < वर्णन, महूरत < मुहूत, वानी < वाणी, विधना < विधाता, सरवज्ञ < सर्वज्ञ। (131) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy