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'बज्जहिं रण तूरै, दल बहु पूरै, चेतन गुण गावंत । सूरा तब जग्गो, कोउ न भग्गो, अरि दल पै धावंत ।। ऐसे सब सूरे, ज्ञान अंकूरे, आये सन्मुख जेह । । आपाबल मंडे, अरिदल खंडे, पुरुषत्वन के गेह ॥
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उनके छंदों में कहीं-कहीं यति भंग और लघु गुरु वर्णों के क्रम का उल्लंघन भी मिलता है किन्तु इससे उनके काव्य सौंदर्य मे कुछ भी क्षति नहीं होती, क्योंकि वे किसी लक्षण ग्रंथ की रचना नहीं कर रहे थे। छंद उनके काव्य सृजन का साधन थे साध्य नहीं ।
इन छंदों के अतिरिक्त भैया भगवतीदास ने आर्या, धत्ता, मत्तगयन्द आदि छंदों का भी प्रयोग किया है। प्रसंग के अनुकूल छंदों के प्रयोग से उनका महत्व और सौंदर्य द्विगुणित हो जाता है। 'भैया' जी ने चेतनकर्मचरित्र आदि प्रबन्धकाव्यों में अधिकतर चौपई छंद, जिनेन्द्र भगवान की वंदना करने के लिये दोहा छंद तथा युद्ध का सजीव वर्णन करने के करिखा और मरहटा छंद का प्रयोग किया है। इस प्रकार विविध मात्रिक और वर्णिक छंदों का उपयुक्त प्रयोग छंदशास्त्र में उनके पर्याप्त ज्ञान और गति का द्योतक है। डॉ० प्रेमसागर जैन ने उन्हें 'कवित्तों का राजा' कहा है। 34 छंद - बद्ध होने से उनके काव्य में संगीतात्मकता का समावेश हो गया है और उसकी प्रभावोत्पादक शक्ति में अतीव वृद्धि हुई है। इसके अतिरिक्त उन्हें विभिन्न रागरागनियों का भी ज्ञान था। परमार्थ पद-पंक्ति के समस्त पद भैरव, बिलावल, रामकली, काफी, सारंग, देवगंधार, विहाग आदि अनेक राग रागनियों में बद्ध हैं।
मध्यकालीन हिन्दी जैन भक्त कवियों ने पच्चीसी, बत्तीसी, छत्तीसी आदि के रूप में भावाभिव्यक्ति की है। उन्होंने अपनी रचनाओं के नाम अधिकतर छंद - संख्या के आधार पर निर्धारित किये हैं। भैया भगवतीदास ने भी अपने ग्रंथों के नाम अधिकतर इसी आधार पर रखे हैं। उन्होंने पच्चीसियाँ सर्वाधिक मात्रा में लिखीं जिनके नाम इस प्रकार हैं- उपदेशपचीसिका, अनित्य पचीसिका, सुपंथ कुपंथ पचीसिका, पुण्यपाप जगमूलपचीसी, जिनधर्म पचीसिका, सम्यक्त्व पचीसिका, वैराग्य पचीसिका, नाटक पचीसी, ईश्वर निर्णय पचीसी, कर्त्ताअकर्त्ता पचीसी, दृष्टांत पचीसी । इनसे कम संख्या है बत्तीसियों की, जो इस प्रकार है- अनादि बत्तीसिका, अक्षरबत्तीसिका, मनबत्तीसी, स्वप्नबत्तीसी, सुआबत्तीसी । इनके अतिरिक्त उन्होंने अष्टक, चतुर्दशी, चौबीसी, छत्तीसी और अष्टोत्तरी भी लिखीं हैं।
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