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________________ कल्पवृक्ष जिनधर्म, इच्छ सब पूरै मन की । चिंतामन जिनधर्म, चिंत सब टारै जन की ।। पारस सो जिनधर्म, करै लोहादिक कंचन। कामधेनु जिनधर्म, कामना रहती रंच न।। जिनधर्म परमपद एक लख, अनंत जहां पाइये। 'भैया' त्रिकाल जिन-धर्म तें, मुक्तिनाथ तोहि गाइये ।। ' 4 +$29 सोरठा दोहा छंद के साथ उनके काव्य में सोरठा छंद भी कहीं-कहीं प्रयुक्त हुआ है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है "इक अंगुल परमान, रोग छानवें भर रहे ।। कहा करै अभिमान, देख अवस्था नरक की ।। "30 अनंगशेखर लघु गुरु लघु गुरु के क्रम से इच्छानुसार प्रयुक्त वर्णों वाले इस छंद में प्रस्तुत पद्य की लय और गत्यात्मकता तो देखते ही बनती है 'कटाक कर्म तोर के छटाक गांठ छोर के, पटाक पाप मोर के तटाक दै मृषा गई। चटाक चिह्न जानि के, झटाक हीय आन के, 44. नटाकि नृत्य भान के खटाकि नै खरी ठई || घटाक घोर फारिके, तटाक बंध टारके, अटाक राम धार कें, रटाक राम की जई। गटाक शुद्ध पान को हटाकि आन आन को, घटाकि आप थान को, सटाक श्यौ बधू लई ।। +131 पद्धरि छंद प्रत्येक चरण में 16 मात्राओं व अन्त में जगण ( लघु गुरु लघु) युक्त पद्धरि छंद का भी भैया भगवतीदास ने पर्याप्त मात्रा में प्रयोग किया है, यथा "जय जय प्रभु ऋषभ जिनेन्द्र देव जय जय त्रिभुवनपति करहिं सेव । जय जय श्री अजित अनंत जोर। जय जय जिहं कर्म हरे कठोर ।। "32 मरहटा 10, 8, 11 पर यति के क्रम से 29 मात्राओं वाले इस छंद का उपयोग भी कवि ने युद्ध के प्रसंग में ही किया है, इस छंद में युद्ध का वर्णन बहुत ही उपयुक्त हुआ है। इसमें ध्वनि और अर्थ का सामंजस्य दर्शनीय है (129) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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