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हुआ है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है__ "हृदय कमल पर बैठिकें, करत विविध परिणाम।
कर्ता नाही कर्म को, ब्रह्मा आतम राम।।''10 सांगरूपक
उनके काव्य में सांगरूपक का भी यत्र-तत्र अच्छा निर्वाह हुआ है। कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं
"ज्ञान रूप तरू ऊगियो, सम्यक धरती माहि। दर्शन दृढ़ शाखा सहित, चारित दल लहकाहिं।। लगी ताहि गुण मंजरी, जस स्वभाव चहुं ओर।।
प्रगटी महिमा ज्ञान में, फल है अनुक्रम जोर।।11 कवि ने दो ही पंक्तियों में कितना सुन्दर सांगरूपक बांधा है
"चेतन चंदन वृक्ष सों, कर्म सांप लपटाहिं।। बोलत गुरू वच मोर के, सिथल होय दुर जाहिं।।"12
'सुआबत्तीसी' में तो आदि से अंत तक सांगरूपक ही है। इतना विस्तृत सांगरूपक हिन्दी में गोस्वामी तुलसीदास के रामचरित मानस को छोड़कर अन्यत्र दुर्लभ है। इसके अतिरिक्त भैया भगवतीदास ने 'चेतनकर्मचरित्र' 'मधुबिन्दुक चौपाई', शत अष्टोत्तरी, पंचेन्द्रिय-संवाद आदि रूपक काव्यों की भी रचना की है, जिनका विस्तृत विवेचन तृतीय अध्याय-कृतियों का परिचय में रूपक-काव्य के अंतर्गत किया जा चुका है। उत्प्रेक्षा उत्प्रेक्षा का एक उदाहरण द्रष्टव्य है"धरती तपत मानो तवा सी तपाय राखी,
बडवा अनल सम शैल जो जरत हैं।।''13 दृष्टान्त
यह भी कवि का प्रिय अलंकार है। दृष्टान्त-पचीसी में कवि ने दृष्टान्तों के माध्यम से ही धर्म एवं नीति का उपदेश दिया है। उनके दृष्टान्त अनुभव पर आधारित होने के कारण हृदय-स्पर्शी एवं ग्राह्य है। यथा
"जिय हिंसा जग में बुरी, हिंसा फल दुख देत।। मकरी माखी भक्ष्यती, ताहि चिरी भख लेत।।14
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