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नहीं कर सकते। अलंकारों के अतिशय प्रयोग से भी काव्य का स्वाभाविक सौंदर्य लुप्त हो जाता है। आचार्य केशव की कविता में अलंकार भार के कारण भाव का सौंदर्य विकृत हो गया है। अतः औचित्य की सीमा में अलंकारों का प्रयोग काव्य को सौंदर्ययुक्त बनाता है तथा स्पष्टता में सहायक होता है।
भैया भगवतीदास ऐसे समय में हुए जब हिन्दी में रीतियुग का आरम्भ हो चुका था। केशवदास की चमत्कारपूर्ण कविता तथा बिहारी के अलंकृत दोहे साहित्यिक क्षेत्र में अवतरित हो चुके थे। भैया भगवतीदास की प्रमुख रचनाएं यद्यपि दर्शनपरक एवं धर्मप्रधान हैं जिनमें अलंकारों का प्रयोग नाममात्र को है तथापि अन्य रचनाओं में अलंकार, बहुलता है। उनके काव्य में अलंकार सामान्यतः सहज स्वाभाविक रूप में ही आये हैं, केवल कुछ स्थलों पर यमक अलंकार सप्रयास लाया गया है। ऐसे स्थलों पर भावपक्ष शिथिल हो गया है। यह कवि के ऊपर रीतिकालीन प्रभाव है। चित्रकाव्य अन्तलापिका आदि के रूप में भी उन्होंने अभिव्यक्ति की ऐसी ही अनेक चमत्कारपूर्ण शैलियों को अपनाया है।
शब्दालंकार शब्दालंकारों में अनुप्रास और यमक भैया भगवतीदास जी को विशेष प्रिय हैं तथा इनके अनेक उदाहरण उनके काव्य में विद्यमान हैं, जिनमें से कुछ यहाँ प्रस्तुत हैंअनुप्रास
"रैन समै सुपनो जिम देखतु प्रात बहै सब झूठ बताया।। त्यों नदि नाव संयोग मिल्यो तुम, चेतहु चित में चेतन राया।।''3
"ऐसी नारि नागनि के नैन को निमेष जीत,
। भये हैं अजीत मुनि जगत विख्यात हैं।।"
यमक
यमक अलंकार में कवि की विशेष रुचि है। यमक के भंगपद और अभंगपद दोनों प्रकार के प्रयोग पर्याप्त मात्रा में दृष्टिगत होते हैं, यथा
"मिटै उरझ उर की सबै जी, फूछत प्रश्न प्रतक्ष।। प्रगट लहै परमात्मा जी, विनसे भ्रम को पक्ष।।"5 (भंगपद यमक) "कानन सुनि कानन गये हो, भूपति तज बहु राज।। काज संवारे आपने हो, केवलि ज्ञान उपाज।।'' (अभंग पद यमक)
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