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________________ अध्याय-5 কলা বং अलंकार-योजना कवि अपने भावों को सुन्दर रूप प्रदान करने के लिये अलंकारों का आश्रय लेते हैं। अलंकारों के प्रयोग से काव्य में सौंदर्य की वृद्धि के साथ-साथ आकर्षण एवं प्रभावोत्पादकता का भी समावेश हो जाता है। काव्य के शोभाकारक धर्म अलंकार कहे जाते है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार भावों का उत्कर्ष दिखाने और वस्तुओं के रूप, गुण और क्रिया का अधिक तीव्र अनुभव कराने में कभी-कभी सहायक होने की युक्ति अलंकार है। काव्य में भावों की स्पष्टता और मूर्तिमत्ता का विधान करने के लिये कवि अप्रस्तुत विधान करता है। यह अप्रस्तुत-योजना आग्रहपूर्वक नहीं होनी चाहिये अन्यथा भाव सौंदर्य में बाधा उपस्थित होगी। वास्तव में अप्रस्तुत योजना भाव सौंदर्य को प्रकाशित करने के लिये है, उसे धूमिल करने के लिये नहीं। काव्य में शोभा अथवा सौंदर्य का विधान शब्द एवं अर्थ के माध्यम से होता है। इसी आधार पर अलंकारों के दो वर्ग निर्धारित किये गये हैं-शब्दालंकार तथा अर्थालंकार। शब्दालंकारों में शब्द सौंदर्य तथा अर्थालंकारों में अर्थ के सौंदर्य की प्रधानता रहती है। जहाँ शब्द और अर्थ दोनों का ही सौंदर्य विद्यमान हो वहाँ उभयालंकार माने जाते हैं। काव्य में अलंकारों की सत्ता एवं महत्ता के विषय में आचार्यों में पर्याप्त मतभेद रहा है। कुछ आचार्यों ने अलंकार को काव्य की आत्मा के रूप में स्वीकार किया है। आचार्य दण्डी, भामह आदि इसी मत की स्थापना करते हैं। हिन्दी में रीति-युग के आचार्य केशवदास भी अंलकारों के प्रबल समर्थक थे। उनके अनुसार अलंकारों के बिना कविता कामिनी सुशोभित नहीं हो सकती। वे कहते हैं "जदपि सुजाति सुलक्षणी सुबरन सुरस सुवृत। भूषन बिनु न विराजई कविता वनिता मित्त।। 2 वास्तविकता यह है कि अलंकारों के उपयोग से काव्य में सौंदर्य की वृद्धि अवश्य होती है किन्तु हम उन्हें काव्य की आत्मा के रूप में स्वीकार (121) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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