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संदर्भ एवं टिप्पणियाँ
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1. 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम्।
- आचार्य विश्वनाथ, साहित्य दर्पण, डॉ0 सत्यव्रत शास्त्री की टीका सहित, प्रथम परिच्छेद, पृ0 सं0 23 विद्याचाचस्पति पं0 रामदहिन मिश्र, काव्य दर्पण, पृ0 सं0 154 पंडित रामबहोरी शुक्ल, काव्य प्रदीप, पृ0 सं0 56 विभावानुभाव व्यभिचारि संयोगाद्रसनिष्पत्तिः। भरतमुनि, नाटय शास्त्र, षष्ठ अध्याय, सं0 डॉ0 रघुवंश, पृ0 सं0 274 'न यत्र दुखं न सुखं न चिन्ता न द्वेष रागौ न च काचिदिच्छाः रसः स शान्तः कथितो मुनीन्द्रैः सर्वेषु भावेषु शमप्रधानः। - आचार्य विश्वनाथ, साहित्य-दर्पण, डॉ० सत्यव्रत शास्त्री की टीका सहित, तृतीय परिच्छेद, पृ0 सं0 265 डॉ0 प्रेमसागर जैन, जैन शोध और समीक्षा, पृ0 सं0 169
भैया भगवतीदास, ईश्वर निर्णयपचीसी, छं0 सं0 6 8. विद्यावाचस्पति पं० रामदहिन मिश्र, काव्य दर्पण, पृ0 सं0 213
सं0 डॉ0 श्यामनारायण पांडेय, रूप गोस्वामीकृत भक्ति रसामृत सिंधु, पृ0 सं0 11 'जैन वह आत्मा है जो 'जयति कर्म शत्रून् इति जिनः' 'के अनुसार कर्म शत्रुओं को जीतने वाले देव को या परमात्मा को अपना उपास्य या आराध्य माने।' - श्री हीरा लाल पांडे, जैन-धर्म और कर्म-सिद्धान्त, श्री तनसुख
राय जैन स्मृति-ग्रंथ, पृ0 सं0 374 11. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, चिन्तामणि, भाग एक, श्रद्धा भक्ति निबन्ध। 12. 'न पूजयार्थ स्तवयि वीतरागे न निन्दया नाथ। विवान्त-वैरे।
तथाऽपि ते पुण्य-गुण-स्मृतिर्नः पुनाति चितं दुरिता जनेभ्यः।।'
- आचार्य समन्तभद्र, स्वयंभू स्तोत्र, पृ0 सं0 12. 13. 'रूप रेख गुन जाति जुगति बिन निरालम्ब मन चकृत धावे।
सब विधि अगम विचारहि तातें सूर सगुन लीला पद गावे।।' - सूरदास, सूर-विनय-पत्रिका, (गीताप्रेस), पद सं0 3.
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