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संध्या के समान रंग देखत ही होय भंग,
दीपक पतंग जैसे काल गरसत ही। सुपने में भूप जैसे इन्द्र धनु रूप जैसे,
__ ओस बूद धूप जैसे दुरै दरसत ही। ऐसोई भरम सब कर्मजाल वर्गणा को,
___ तामे मूढ मग्न होय मरै तरसत ही।।"34
संसार की असारता का वर्णन कवि ने एक अन्योक्ति के माध्यम से किया है
"सूवा सयानप सब गई, सेयो सेमर वृच्छ।।
आये धोखे आम के, यापैं पूरण इच्छ।। यापैं पूरण इच्छ, वृच्छ को भेद न जान्यो।। रहे विषय लपटाय, मुग्धमति भरम भुलान्यो।। फलमहिं निकसे तूल, स्वाद पुन कछु न हूवा।।
यहै जगत की रीति देखि, सेमर सम सूवा।।" जीव सांसारिक विषय वासनाओं में लिप्त रहकर अपने चारों ओर कर्मजाल फैला लेता है फिर स्वयं ही उसमें उलझ जाता है
"हंसा हँस हँस आप तुझ पूर्व संवारे फंद। तिहिं कुदाव में बंधि रहे, कैसे होहु सुछंद।। कैसे होहु सुछंद, चंद जिम राहु गरासै। तिमर होय बल जोर, किरण की प्रभुता नासै।। स्वपर भेद भासे न देह जड लखि तजि संसा।
तुम गुण पूरन परम सहज अवलोकहु हंसा।।"35 कर्म-बंध का मूल राग द्वेष की परिणति है। राग द्वेष में लिप्त होने के कारण ही जीव अपने आत्म स्वरूप से अनभिज्ञ रहता है। राग-द्वेष रूपी मल के उच्छेदन करते ही कर्म रूपी वृक्ष धराशायी हो जाता है, आत्मिक आनन्द का प्रकाश विकीर्ण होने लगता है"मोह के निवारे राग द्वेषह निवारें जाहिं.
राग द्वेष टारें मोह ने कहू न पाइये। कर्म की उपाधि के निवारिवै को पेंच यहै।
जड़ के उखारे वृक्ष कैसे ठहराइये।
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