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अतृप्त रहती हैं। उसकी तृष्णा भगवान का ध्यान करने से ही शान्त हो सकती है"जेतोजल लोकमध्य सागर असंख्य कोटि,
तेतो जल पियो पै न प्यास याकी गई है। जेते नाज दीपमध्य भरे हैं अवार ढेर,
ते ते नाज खायो तोउ भूक याकी नई है। तातें ध्यान ताको कर जातै यह जाय हर,
अष्टादश दोष आदि ये ही जीत लई है। वहै पंथ तूही साजि अष्टादश जाय भाजि,
होय बैठि महाराज तोहि सीख दई है।" जिस शरीर को मानव छप्पन प्रकार के रसपूर्ण व्यंजन खिला-खिलाकर पोषित करता है, उस शरीर की निकृष्टता का कितना स्पष्ट वर्णन है
"मांस हाड लोहू सानि पुतरी बनाई काहु,
, चाम सों लपेट तामें रोम केश लाये हैं। तामैं मलमूत भर कृमि केई कोटि धर,
रोग संचै कर कर लोक में ले आये हैं। बोलै वह खाउँ खाउं खाये बिना गिर जाऊं,
आगे को न धरों पाउं ताही पै लभाये हैं। ऐसे भ्रम मोह ने अनादि के भ्रमाये जीव,
देखें परतक्ष तोउ चक्षु मानो छाये हैं।' '32 इस पर भी मानव शरीर से प्रेम करता है किन्तु यह फिर भी सदैव उसका साथ नहीं देता, जब तक देह है तब तक ही सब सगे सम्बंधी भी साथ है। समस्त सम्बन्ध स्वार्थ के हैं
"काहे को देह सो नेह करै तुअ, अंत को राखी रहेगी न तेरी। मेरी है मेरी कहा करै लच्छि सों, काहु की वै के कहूं रही नेरी। मान कहा रह्यो मोह कुटुम्ब सो, स्वारथ के रस लागे सगेरी। तातें त चेति विचक्षन चेतन, झठी है रीति सबै जग केरी।।33 संसार की नश्वरता का वर्णन करते हुए कवि कहता है"धूमन के धौरहर देख कहा गर्व करै,
ये तो छिनमाहिं जाहिं पौन परसत ही।
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