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धू गुण आप विलक्ष गहो पुनि, आपुहि तै परतीति टरैगी।
सिद्ध भये ते यही करनी कर, ऐसें किये शिव नारी वरैगी।। 29 जैन साहित्य में शिव मोक्ष अथवा मुक्ति का पर्यायवाची बनकर प्रयुक्त हुआ है। भैया भगवतीदास ने भी श्योवधू (शिववधू), शिव रमणी, शिवनारी, शिव सुख आदि पदों का प्रयोग किया है। चौदह गुणस्थान जीव संख्यावर्णन नामक कृति के अंत में नाम 'शिवपंथपचीसिका' दिया गया है। शांत रस अथवा शान्ता भक्ति
___ पहले ही कहा जा चुका है कि जैन साहित्य शांत रस प्रधान है। वहाँशृंगार के स्थान पर शांत रस का राजत्व स्वीकार किया गया है। स्थायी आनन्द शान्त रस में ही प्राप्त होता है। अभिनवगुप्त ने भी शान्त रस को श्रेष्ठ कहा है क्योंकि उसका लक्ष्य मोक्षप्राप्ति होता है और मोक्ष जीवन साधना का अन्तिम और परमलक्ष्य है। संसार की असारता देखकर मन में वैराग्य भाव पुष्ट होने पर शान्त रस की प्रतीति होती है और संसार को असार, अनित्य तथा दुखमय मान कर आत्मा अथवा परमात्मा में केन्द्रित हो जाना ही शान्ति (शान्ता भक्ति) है। भक्ति रसामृत-सिंधु में श्री कृष्ण में परमात्मबुद्धि से उत्पन्न रति को शान्ति कहा गया है।30 निर्वेद इसका स्थायी भाव है। ध्वन्यालोककार ने तृष्णाक्षय सुख को इसका स्थायी भाव माना है। अनित्य संसार इस रस का आलम्बन विभाव, मन्दिर, सत्संग धर्मशास्त्रों का अध्ययन, सांसारिक विपत्तियां, उद्दीपन विभाव, धृति, मति, हर्ष, उद्वेग, जड़ता आदि संचारी भाव तथा कामक्रोध, लोभ मोह आदि का अभाव तथा इनको त्यागने की उक्तियां आदि अनुभाव हैं। पं0 रामदहिन मिश्र के अनुसार, "अन्य रस लौकिक होने से प्रवृत्ति मूलक और शान्तरस पारलौकिक होने से निवृत्ति-मूलक है।''31
__ जैन धर्म में आत्मा का विस्तृत वर्णन होने से तथा उसके सर्वशक्तिमान मानने से जैन साहित्य अध्यात्म प्रधान है तथा उसमें अध्यात्म मूला-भक्ति प्रमुख है। भैया भगवतीदास के काव्य में भी शान्त रस की प्रधानता है। मन को सांसारिकता से विमुख करके आत्मसुख की ओर उन्मुख करना ही उनके काव्य का मूल स्वर है। संसार की क्षण-भंगुरता, शरीर की निकृष्टता, जीव की अज्ञानता, आदि की अनेक हृदयग्राही उक्तियों से उनकी कृतियाँ ओतप्रोत हैं। शतअष्टोतरी के एक कवित्त में वे कहते हैं कि मानव की कामनाएँ सदैव
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