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________________ दाम्पत्य भाव की भक्ति प्रचुर मात्रा में दृष्टिगत होती है। इसका एक रूप बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के प्रति राजुल के प्रेम के माध्यम से व्यक्त हुआ है। नेमिनाथ वैराग्य उत्पन्न होने के कारण विवाह मंडप के द्वार से ही लौट गये थे, सुहागोन्मुखी राजुल प्रतीक्षा ही करती रह गई। अनेक कवियों ने साधु मुनियों अथवा तीर्थंकरों के संयम-श्री तथा शिवरमणी से आध्यात्मिक विवाह होते हुए दिखाए हैं। जैन परम्परा में आत्मा और परमात्मा में तात्विक भेद नहीं माना गया है। कर्म-मल से युक्त आत्मा है और कर्म-मल से मुक्त परमात्मा है। आत्मा को पति तथा उसे 'कान्तासम्मित उपदेश' देने वाली सुमति को पत्नी मानकर भैया भगवतीदास ने रूपक काव्यों की रचना की है। चेतना युक्त होने के कारण जैन कवियों ने आत्मा को चेतन चिदानन्द चिन्मूर्ति आदि की संज्ञा दी है। सुमति रानी अपने पति चेतन से प्रेम करती है पति की अनन्त शक्ति तथा गुणों से परिचित है किन्तु दुर्भाग्यवश वह कुबुद्धि आदि दासियों की संगति में रहकर विपथगामी हो गया है। उसे मधुर शब्दों में सचेत करते हुए सुमति रानी कहती है"दासीन के संग खेल खेलत अनादि बीते, अजहूँ लो वहै बुद्धि कौन चतुराई है। कैसी है कुरूपकारी निशि जैसे अंधियारी, औगुन गहनहारी कहा जान लई है। इन्ही की संगत सों संकट अनेक सहे, जानि बूझ भूल जाहु ऐसी सुधि गई है। आवत परेखो हंस ! मोहि इन बातन को, चेतन के नाथ को अचेतना क्यों भई है।''24 चेतन के सचेत न होने पर सुमति पुनः प्यार भरे शब्दों में क्षमा, करुणा, शान्ति जैसी अनेक सुन्दर नारियों की सेवा का लोभ दिखाते हुए ज्ञान रूपी महल में ले जाना चाहती है"कहाँ-कहाँ कौन संग लागे ही फिरत लाल।। आवो क्यों न आज तुम ज्ञान के महल में।। नैकहू विलोकि देखो अन्तरसुदृष्टि सेती, ___ कैसी कैसी नीकी नारि ठाड़ी है टहल में।। एकनतें एक बनी सुन्दर सुरुप धनी, उपमा न जाय गनी वाय की चहल में।। (112) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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