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________________ तेरो नाम वीतराग धरै उर वीतरागा, भव्य तोहि पाय भवसागर तरंत है।"19 मध्यकालीन भक्ति सम्प्रदायों ने गुरु को पर्याप्त महत्व दिया है। कबीरदास तो गोविन्द को छोड़ गुरु को बलिहारी गये हैं क्योंकि वही तो गोविन्द की पहचान और उस तक पहुँचने का मार्ग बताता है। जैनधर्म में भी गुरु की महत्ता को स्वीकार किया गया है, उनके यहाँ जो पाँच परमेष्ठी माने गये हैं- अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु, इन्हें ही पंचगुरु कहा गया है। अर्थात् जो मोक्ष के मार्ग पर चल चुके हैं अथवा चल रहे हैं वही सांसारिक प्राणी को उस मार्ग का निर्देशन कर सकते हैं। भैया भगवतीदास ने सत्गुरु की महत्ता का स्थान-स्थान पर प्रतिपादन किया है। कर्मरूपी सॉं से मुक्ति दिलाने के लिये गुरु के वचन मोर के समान हैं "चेतन चंदन वृक्ष सों, कर्म सांप लपटाहिं।। बोलत गुरू वच मोर के, सिथल होय दुर जाहि।।''20 किन्तु गुरु का सतगुरु होना अनिवार्य है अन्यथा वह तो पतन की ओर ले जाता "देत मरन भव सांप इक, कुगुरु अनन्ती बार। वरू सांपहि गहि पकरिये, कुगुरु न पकर गंवार।।':21 दाम्पत्य भक्ति ईश्वर के प्रति गहन अनुराग ही दाम्पत्य भक्ति का स्थायी भाव है, ईश्वर स्वयं आलम्बन विभाव तथा आलम्बन के गुण उद्दीपन विभाव है। उत्सुकता, गर्व, हर्ष, निर्वेद, स्मृति, धृति आदि संचारी भाव हैं, तथा नेत्रविकास, रोमांच, भक्तिपूर्ण उक्तियाँ अनुभाव हैं। भक्त हृदय में ईश्वर मिलन की तीव्र आकांक्षा होती है, उसे वह पति पत्नी के मध्य मिलन की आतुरता का बाना पहना देता है। नारी हृदय स्वभावतः अधिक कोमल और प्रेमपूर्ण होता है अत: भक्त स्वयं पत्नी अथवा प्रेमिका बनता है और ईश्वर को प्रियतम मानकर उसके विरह एवं मिलन के गीत गाता है। कबीरदास ने स्वयं को 'राम की बहुरिया' कहा है,2 राम को पुकारते-पुकारते उनकी जिह्वा में छाले पड़ गये हैं और पंथ निहारते-निहारते आँखों में जाला पड़ गया है।23 सूरदास ने यह प्रेभाभिव्यक्ति गोपियों के माध्यम से की है। सूफी प्रेमाख्यानकों में भक्त स्वयं प्रेमी बना है ओर भगवान् को प्रियतमा रूप में देखता है। जायसी के 'पदमावत में रतनसेन भक्त का प्रतीक है तो' पद्मावती ईश्वर का। जैन साहित्य में भी . (111). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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