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जैन भक्त भगवान की वीतरागता को जानता है और उनके अकर्तृत्व से भी परिचित है, फिर भी उसका हृदय कुछ आशा आकांक्षा लेकर ही उनकी ओर उन्मुख रहता है किन्तु फिर भी जैन भक्ति निष्काम होती है क्योंकि सांसारिक सुख की इच्छा ही कामना कहलाती है। अलौकिक अथवा आध्यात्मिक सुख की वांछा 'कामना' नहीं होती। यद्यपि जैन-भक्त कवियों ने भी समय के प्रभाव में आकर वीतराग भगवान से बहुत कुछ मांगा है किन्तु भैया भगवतीदास के काव्य में इस प्रकार की याचना नहीं की गई अतः उनकी भक्ति निष्काम है।
उपास्य के महत्व की स्वीकृति के साथ-साथ निज के लघुत्व की अनुभूति भी भक्त हृदय में होती है। इससे तात्पर्य केवल यही है कि अहंकारी हृदय भक्ति जैसी पवित्र भावना को धारण करने का अधिकारी नहीं होता। भैया भगवतीदास के काव्य में हमें उस दैन्य अथवा लघुता के दर्शन नहीं होते जिसके अतिरेक में भक्त कवि स्वयं को 'पतितों को टीकौ 18 बता गये हैं। किन्तु इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं कि वे अहंकारी थे। उपास्य के गुणों के महत्व का अनुभव ही वह व्यक्ति कर सकेगा जो स्वयं को उन गुणों से वंचित मानता है तथा उन्हें धारण करने का अभिलाषी है। वस्तुतः दैन्य अथवा लघुत्व की अनभिव्यक्ति के पीछे उनका ईश्वर के अकर्तृत्व में सबल विश्वास है। उनकी प्रत्येक कृति का आरम्भ भगवान के गुणों का स्मरण करते हुए उनकी वंदना से हुआ है।
सभी भक्त कवि भगवान के नाम के माहात्म्य को स्वीकार करते हैं। भक्ति के अतिरेक में वे भगवान के नाम में ही ऐसे चमत्कार का वर्णन करने लगते हैं कि जिसके लेने मात्र से ही भवबंधन कट जाते हैं यहाँ तक कि भूल से भगवान का नाम जिह्वा से निकल जाने पर ही बड़े-बड़े पापियों का उद्धार हो जाता है। भैया भगवतीदास ने भी भगवान के नाम की महत्ता को स्वीकार किया है"तेरो नाम कल्पवृच्छ इच्छा को न राखै उर,
तेरो नाम कामधेनु कामना हरत है। तेरो नाम चिन्तामन, चिन्ता को न राखै पास,
तेरो नाम पारस सो दारिद हरत हैं। तेरो नाम अम्रत पिये तैं जरा रोग जाय, तेरो नाम सुख मूल दुख को दरत है।
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