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को श्रद्धा कहा है और भक्ति में श्रद्धा तथा प्रेम का योग होता है। ईश्वर के प्रति अनुराग ही दास्य-भक्ति का स्थायी रस है, ईश्वर आलम्बन विभाव, उनके अनुपम गुण उद्दीपन विभाव, उत्सुकता, गर्व, हर्ष, मति आदि संचारी भाव तथा रोमांच, भक्तिपूर्ण कथन आदि अनुभाव हैं। भक्त अपने इष्ट में गुणों का उत्कर्ष देखकर ही उस ओर उन्मुख होता है और उसके गुणों का श्रवण, चिंतन और दर्शन कर उसे विशेष सुख की प्राप्ति होती है। अतः उपास्य की महिमा का गुणगान करना भक्त हृदय का सहज स्वाभाविक कर्म है। भैया भगवतीदास ने भी अपने आराध्य के महत्व की चरम अनुभूति की है और उसे भाँति-भाँति से अभिव्यक्ति दी है। जैन भक्त की दृष्टि में ईश्वर की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि उन्होंने स्वयं को कर्मबंधन का क्षय कर मुक्ति प्राप्त की तथा उनकी भक्ति से भक्त का चित्त निर्मल होता है और वह भी भव सागर से पार हो जाता है। अतः यहाँ यही उद्दीपन विभाव है। भैया भगवतीदास की दृष्टि अपने इष्ट की इसी विशेषता पर केन्द्रित है। वे कहते हैं
"
'आप तरैं तारें परहिं, जैसे जल नइया ||
केवल शुद्ध स्वभाव है, समुझे समुझया ।।
" भविक तुम बंदहु मनधर भाव, जिन प्रतिमा जिनवर सो कहिये । जाके दरस परमपद प्रापति, अरू अनंत शिवसुख लहिये ।। " " जिनवाणी को को नहिं तारे ।
मिथ्यादृष्टि जगत निवासी लहि समकित निज काज सुधारे।। 16 कवि जिनेन्द्र भगवान की वंदना इसलिये करता है कि उनकी शरण में आने पर कामदेव जैसे योद्धा का भी उस पर कोई जोर नहीं चलेगा जिसे संसार के सब प्राणियों पर विजय प्राप्ति का अहंकार है । अत: इस पद्य में भगवान की यही विशेषता उद्दीपन विभाव है। गर्व, हर्ष, मति संचारी भाव तथा पुष्प अर्पण अनुभाव है
" जगत के जीव जिन्हें जीत के गुमानी भयों,
ऐसो कामदेव एक जोधा जो कहायो है । ताकेशर जानियत फलनि के वृंद बहु,
केतकी कमल कुंद केवरा सुहायो है। मालती सुगंध चारू बेलि की अनेक जाति,
चंपक गुलाब जिनचरण चढ़ायो है। तेरी ही शरण जिन जोर न बसाय याको, सुमन सों पूजे तोहि मोहि ऐसी भायो है। ''17
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