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"प्रथम प्रणमि अरहंत, बहुरि सिद्ध नमिज्जै।
आचारज उवझाय, तासु पद वंदन किज्जै।" इसके अतिरिक्त उन्होंने अरहंत तथा सिद्ध भगवान की पृथक-पृथक रूप में वंदना की है।
वैसे तो जैन भक्त चौबीसों तीर्थंकरों का उपासक होता है किन्तु कभी-कभी उसकी भक्ति-भावना किसी एक के प्रति अधिक प्रवाहित होती है। भैया भगवतीदास ने भी सामूहिक वन्दना करते समय चौबीसों तीर्थंकरों की समान रूप से स्तुति की है जैसे 'वर्तमान चतुर्विशति जिनस्तुति' तथा 'चतुर्विशति तीर्थंकर जयमाला'। किन्तु उनका भक्त हृदय अपेक्षाकृत तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की ओर अधिक उन्मुख है। भगवान पार्श्वनाथ की भक्ति-भावना से प्रेरित होकर उन्होंने उनके प्रति एक पृथक स्तुति की रचना की है। 'अहक्षिति पार्श्वनाथ जिनस्तुति'। यह कवि की सर्वप्रथम मौलिक रचना जान पड़ती है। इसकी रचना संवत् 1731 में की गई और इससे पूर्व की उनकी अन्य कोई रचना उपलब्ध नहीं है। इसके अतिरिक्त अन्य रचनाओं के मध्य यत्र-तत्र भगवान पार्श्वनाथ के प्रति उनके भक्ति-भाव-सुमन झर पड़े हैं जैसे सुबुद्धि चौबीसी के अन्तर्गत प्रस्तुत कवित्त"आनन्द को कंद किधों पूनम को चन्द किधों,
देखिये दिनन्द ऐसो नन्द अश्वसेन को। करम को हरै फंद भ्रम को करै निकंद,
चूरै दुख द्वंद सुख पूरै महा चैन को। सेवत सुरिंद गुनगावत नरिंद भैया,
ध्यावत मुनिंद तेहू पार्दै सुख ऐन को। ऐसो जिन चंद करै छिन में सुछंद सतौ,
___ऐक्षितको इंद पार्श्व पूजों प्रभु जैन को।" तथा फुटकर कविता के अन्तर्गत प्रस्तुत सवैया
"काहे को देश दिशांतर धावत, काहे रिझावत इंद नरिंद। काहे को देवि और देव मनावत, काहे को शीस नवावत चंद। काहे को सूरज सों कर जोरत, काहे निहोरत मूढमुनिंद।
काहे को शोच करै दिन रैन तू, सेवत क्यों नहिं पार्श्व जिनंद।" दास्य भक्ति
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने 'श्रद्धेय के महत्व की आनन्दपूर्ण स्वीकृति'
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