________________
से रहित, पूजा, अर्चना निरर्थक है। इस प्रकार जैन-धर्म में ईश्वर के राग-द्वेष . से अतीत होने पर भी उसकी भक्ति की जाती है। भैया भगवतीदास के काव्य में भक्ति का स्वरूप
मध्य युग में उत्तर भारत में धर्म के क्षेत्र में निर्गुण और सगुण को लेकर जो पारस्परिक विरोध और संघर्ष व्याप्त रहा, जैन-धर्म साधना उससे मुक्त रही है। यद्यपि भक्त-कवियों ने निर्गुण की उपासना कठिन बताकर सगुण की भक्ति करने की बात कह कर दोनों की एकता स्थापित करने का प्रयास किया13 किन्तु उन्हें विशेष सफलता नहीं मिली। जैन परम्परा में दोनों में कोई तात्विक विरोध ही नहीं माना गया है। आचार्य योगीन्दु ने 'परमात्मप्रकाश' में सिद्ध भगवान को 'निष्कल' कहा है। और अरहंत भगवान 'सकल' कहलाते है।14 उत्तरोत्तर आत्म विकास करते हुए, चार घातिया कर्मों का क्षय करके जीव अरहंत अवस्था को प्राप्त कर लेता है। अरहंत सशरीर होते हैं उन्हें 'सकल' कहा गया है। जब ये अरहंत भगवान चार अघातिया कर्मों का भी क्षय करके शरीर त्याग देते हैं तब सिद्ध कहलाते हैं, इन्हें ही 'निष्कल' कहा गया है। इन्हें हम क्रमशः सगुण तथा निर्गुण कह सकते हैं। प्रत्येक निष्कल पहले सकल बना है अत: दोनों में कोई विरोध नहीं है। उत्तरोत्तर आत्म विकास करते हुए अरहंत अवस्था सिद्ध अवस्था से पहला सोपान है और सिद्ध अवस्था अन्तिम। जैन परम्परा के 'सिद्ध' और निर्गुण भक्ति धारा के 'ब्रह्म' एक ही हैं, भैया भगवतीदास ने भी दोनों की एकता का प्रतिपादन किया है
"जोई गुण सिद्ध माहिं सोई गुण ब्रह्ममाहिं, सिद्ध ब्रह्म फेर नाहिं निश्चै निरधार के।"15
जैन साहित्य साधना में 'सकल' और 'निष्कल' में कोई विरोध नहीं माना गया है। जैन कवियों ने समान रूप से दोनों के चरणों में श्रद्धा-सुमन चढ़ाये हैं। भैया भगवतीदास ने भी दोनों की समान रूप से भक्ति की है। यद्यपि जैन साधना का सर्वोच्च सोपान सिद्ध पद है किन्तु जैन स्तुतियों और मंत्रों में पहले अरहंत को नमस्कार किया गया है क्योंकि अरहंत अवस्था में रहते हुए भगवान उपदेश आदि का लोकोपकारी. कार्य करते हैं। भैया भगवतीदास ने भी ब्रह्मविलास ग्रंथ में संगृहीत प्रथम रचना पुण्यपचीसिका का आरम्भ एक मंगलाचरण से किया है जिसमें पहले अरहंत को, तत्पश्चात् सिद्ध को नमस्कार किया है
(107)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org