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सत्संग आदि उद्दीपन विभाव हैं। औत्सुक्य, हर्ष, गर्व, निर्वेद, मति, धृति, स्मृति, चिन्ता आदि संचारी भाव है। रोमांच, नेत्रविकास, विनीत प्रार्थना, याचना, गदगद वचन, अनुभाव हैं। 'भक्ति रसामृत सिंधु' में रूप गोस्वामी ने भक्ति रस से सम्बंधित पाँच भाव स्वीकार किये हैं- शुद्धा (शांत), प्रीति (दास्य), सख्य, वात्सल्य और प्रियता (माधुर्य)।' जैन धर्म में भक्ति की सम्भावना
जैन दर्शन निरीश्वरवादी तो नहीं है किन्तु उसमें अन्य दर्शनों की भाँति ईश्वर को सृष्टि का कर्ता अथवा नियन्ता नहीं स्वीकार किया गया है। सृष्टि अनादि और अनन्त है, प्रत्येक वस्तु अपने अपने स्वभावानुसार उत्पन्न होती, कार्य करती तथा नष्ट होती रहती है। प्रत्येक जीव में परमात्मा बनने की शक्ति निहित है। जीव अपने कर्मरूपी शत्रुओं को जीत कर 'जिन' अर्थात् ईश्वर बन जाता है, जैन धर्म में इन्ही 'जिन' अर्थात् जिनेन्द्र भगवान की पूजा की जाती है।10 अत: वहाँ ईश्वर एक नहीं अनेक हैं जो भी कर्मबंधन से मुक्त हो गया वही ईश्वर है। जैन परम्परा में ईश्वर वीतराग है। राग को वहाँ कर्मबंधन का हेतु माना गया है। अतः राग द्वेष से परे होकर ही वह कर्म-विमुक्त हो सकता है और पूज्य बन सकता है। भक्ति में श्रद्धा तथा प्रेम का योग होता है।11 ईश्वर में गहन अनुराग ही भक्ति है। जैन भक्त भगवान की वीतरागता पर रीझ कर ही उनकी भक्ति करता है किन्तु प्रश्न उठता है कि जब भक्ति में राग सन्निहित है तो भक्ति भी कर्मबंध का कारण होनी चाहिये। किन्तु ऐसा नहीं होता। जिस प्रकार प्रेम का आलम्बन अलौकिक होने से वह प्रेम अलौकिक हो जाता है उसी प्रकार वीतराग से किया गया अनुराग राग की कोटि में ही नहीं आता। वस्तुतः पर-पदार्थों से किया गया प्रेम बंध का कारण होता है, ईश्वर पर-पदार्थ नहीं स्व-आत्मा रूप ही है। इसके अतिरिक्त जैन दर्शन ईश्वर में कर्तत्व शक्ति नहीं मानता। भक्त की भक्तिभावना से उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, और न वह किसी को सुख अथवा दुख देता है। सुख-दुख तो जीव अपने पूर्वकृत कर्मानुसार भोगता है। तब भक्त को भगवान की भक्ति से क्या लाभ है ? वह भक्ति क्यों करता है ? इसका भी उत्तर है। भगवान के पुण्य गुणों का स्मरण करने से भक्त का चित्त निर्मल होता है12, कर्मबंध का क्षय होता है, मंजिल समीप आती जाती है। इस प्रकार ईश्वर भक्त को स्वयं भले ही कुछ न दें किन्तु उनके निमित्त से भक्त सब कुछ पा जाता है। किन्तु जैन भक्त का ईश्वर से सुख की याचना करना अनुचित है तथा भक्ति-भावना
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