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करते हुए साहित्यदर्पण में कहा है कि जिसमें न दुख हो, न सुख हो, न कोई चिन्ता हो, न राग द्वेष हो, और न कोई इच्छा ही हो, उसे शान्त रस कहते हैं। प्रश्न उठता है कि ऐसी दशा में तो शान्त रस की स्थिति मोक्षप्राप्ति के पश्चात् ही हो सकती है किन्तु इस का समाधान यह है कि यहाँ सुख के अभाव से तात्पर्य सांसारिक सुख से है अन्य सुख अर्थात् आत्मिक सुख से नहीं।
संसार से वैराग्य भाव का उत्कर्ष होने पर शान्त रस की प्रतीति होती है। निर्वेद अथवा वैराग्य ही शान्त रस का स्थायी भाव है, संसार की असारता का बोध तथा परमात्म तत्व का ज्ञान इसका आलम्बन विभाव है, सज्जनों का सत्संग, तीर्थाटन, धर्मशास्त्रों का चिन्तन आदि उद्दीपन विभाव है, रोमांच, पुलक, अश्रु-विर्सजन, संसार त्याग के विचार आदि अनुभाव हैं तथा धुति, मति, हर्ष, उद्वेग, ग्लानि, दैन्य, स्मृति, जड़ता आदि इसके संचारी भाव हैं।
जैन साहित्य अध्यात्म प्रधान है अत: उसमें शान्त रस को प्रमुखता दी गई है तथा श्रृंगार के स्थान पर शान्त को रसराज माना गया है। प्रसिद्ध जैन कवि बनारसीदास ने "नवमों सान्त रसनि को नायक" कहा है', तथा डॉ0 भगवानदास ने अपने रस-मीमांसा निबन्ध में शान्त रस का रस-राजत्व अनेक तर्कों द्वारा सिद्ध किया है। उनके विचार से शेष सब रस शान्त रस में ही समाहित हो जाते हैं। संसार की असारता और परिवर्तनशीलता को देखकर मन का विरक्त होना तथा आत्मिक आनन्द में लीन होना ही परम शान्ति है। अष्ट कर्मो का क्षयकर निर्विकार अवस्था को प्राप्त कर परम आनन्द की उपलब्धि जैन धर्मसाधना का लक्ष्य है। भैया भगवतीदास ने भी जैन-धर्म को 'शान्त रस का मत' कहा है
"शान्ति रसवारे कहैं मत को निवारे रहै,
___ तेई प्रान प्यारे लहैं और सब वारे हैं।" भक्ति रस की उद्भावना
प्राचीन आचार्यों ने भक्ति भाव की सरलता की ओर ध्यान न देकर शान्त रस के अन्तर्गत ही इसे निहित कर दिया था। किन्तु कालान्तर में इसकी महत्ता और प्रसार का अनुभव किया गया और रूप गोस्वामी के प्रयास से इसे पृथक रस के रूप में स्वीकार किया गया। शांडिल्य के अनुसार 'सा परानुरक्तिः ईश्वरे अर्थात् ईश्वर में परम अनुरक्ति को भक्ति कहते हैं। भगवद्विषयक अनुराग भक्तिरस का स्थायी भाव है। ईश्वर अथवा देवी देवता इसके आलम्बन विभाव है, ईश्वर के अनुपम गुण, सर्वशक्तिमत्तता, भक्तों का
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