________________
अनुकूल विभिन्न प्रकार की उक्तियाँ भाव भंगिमाएं तथा चेष्टाएं इनके अन्तर्गत आती हैं। संचारी या व्यभिचारी भाव
स्थायी भावों को पुष्ट करने में सहायता पहुँचाने के लिए कुछ मनोविकार कुछ समय के लिये उत्पन्न होते हैं और काम करके तत्काल ही लुप्त हो जाते हैं। संचरण करते रहने के कारण ही इन क्षणिक सहायक भावों को संचारी भाव कहते हैं। ये किसी एक ही रस के साथ बंधे नहीं रहते कभी किसी के साथ प्रकट हो जाते हैं और कभी किसी के साथ। इसी से इन्हें व्यभिचारी भाव भी कहते हैं। स्थायी भाव रसास्वादन पर्यन्त मन में ठहरते हैं तथा संचारी भाव तरंगों की भांति उठते और विलीन होते रहते हैं। इनकी संख्या तैंतीस मानी गयी हैं, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैंनिर्वेद दरिद्रता, आपत्ति, अपमान आदि के कारण तुच्छता का अनुभव। ग्लानि मनस्ताप से कार्य में अनुत्साह और मन का शैथिल्य। शंका भावी अनिष्ट की चिन्ता। असूया दूसरे की उन्नति अथव सुख-वैभव से ईर्ष्या। श्रम शारीरिक श्रम के कारण मानसिक अवसाद। आलस्य%श्रम, जागरण आदि के कारण कार्य शैथिल्य। दैन्य दारिद्रय अथवा दुर्गति के कारण मन की ओज हीनता। चिन्ता=इष्ट वस्तु की अप्राप्ति से मन की विकलता। स्मृति सादृश्य वस्तु के दर्शन से पूर्वानुभूत सुख दुख का स्मरण। धृति हर्ष विषाद आदि में चित्त की स्थिरता। व्रीड़ा स्त्रियों में पुरुष को देखने आदि से और पुरुषों में निन्दित कार्य करने से लज्जा का अनुभव।
इस प्रकार स्थायी भाव ही आलम्बन उद्दीपन विभाव के कारण उदित होकर संचारी भावों से पोषित होकर तथा अनुभाव रूप में व्यक्त होकर रस दशा को प्राप्त होते हैं। यही रस-निष्पत्ति है।' जैन हिन्दी काव्य में शान्त रस का रसराजत्व
भरत मुनि ने साहित्य में आठ रसों को स्वीकृत कर शांत रस को उपेक्षित कर दिया था किन्तु कालान्तर में शान्त रस को नवम रस के पद पर प्रतिष्ठित किया गया और मम्मट आदि अनेक आचार्यों के द्वारा निर्वेद को स्थायी भाव स्वीकार किया गया। आचार्य विश्वनाथ ने शान्त रस को स्पष्ट
(104)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org