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जिसके हृदय में भाव जाग्रत होता है वह आश्रय कहलाता है और जिन पर आलम्बित होकर भाव उत्पन्न होता है वे आलम्बन विभाव हैं जैसे रति स्थायी भाव के आलम्बन नायक और नायिका होते हैं। हास्य रस के आलम्बन मूर्ख या विकृत आकृति वाले व्यक्ति अथवा वस्तुएं होती हैं। दीन दुखी आर्त जन करुण रस के, दुराचारी रौद्र रस के, शत्रु वीर रस के, भयप्रद दृश्य भयानक रस के, घृणित वस्तुएं वीभत्स रस की, आश्चर्यजनक कार्य व्यापार अद्भुत रस के तथा परमार्थ शान्त रस के आलम्बन हैं। स्थायी भाव आलम्बन के प्रति आश्रय के हृदय में जाग्रत होकर जिन कारणों अथवा वस्तुओं से उद्दीप्त होता है उन्हें उद्दीपन कहते हैं जैसे नायक नायिका की चेष्टाएं, चन्द्र-ज्योत्सना, सुरभित पवन, वाटिका आदि शृंगार रस के उद्दीपन हैं। तीर्थस्थल, सत्संग, शास्त्रानुशीलन आदि शान्त रस के उद्दीपन हैं। आलम्बन स्थायी भाव के उत्पादक कारण तथा उद्दीपन उद्दीपक कारण हैं। अनुभाव
आश्रय के हृदय में उत्पन्न स्थायी भाव को अभिव्यक्ति देने वाली उसकी जो उक्तियां, चेष्टाएं, अथवा लक्षण होते हैं उन्हें ही अनुभाव कहते हैं, वे भाव के अनु अर्थात् पीछे उत्पन्न होने के कारण अनुभाव कहलाते हैं तथा सामाजिकों को स्थायी भाव का अनुभव कराते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि आलम्बन की चेष्टाएं उद्दीपन तथा आश्रय की चेष्टाएं अनुभाव के अन्तर्गत आती हैं। अनुभाव दो प्रकार के होते हैं सात्विक और कायिका शरीर के अकृत्रिम अंगविकार, जिनके ऊपर आश्रय का कोई वश नहीं रहता, सात्विक अनुभाव कहलाते हैं। आचार्यों ने इनकी संख्या आठ मानी है1. स्तम्भ- अंगों की गति रूक जाना। 2. स्वेद- भय आदि के कारण शरीर स्वदेयुक्त हो जाना। 3. रोमांच- रोंगटे खड़े होना। 4. स्वर भंग- कंठ अवरूद्ध होना। 5. वेपथु- शरीर में कम्पन होना। 6. वैवर्ण्य- मुख का रंग उड़ जाना। 7. अश्रु- नेत्रों से अश्रुपात होना। 8. प्रलय- संज्ञाहीन होना।
कृत्रिम आंगिक चेष्टाओं को कायिक अनुभाव कहते हैं। रस के
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