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में विद्यमान रहते हैं और विभाव आदि के संयोग से उद्दीप्त हो उठते हैं। मानव हृदय सागर के समान अतल गम्भीर होता है, उसमें भाव रूपी अनन्त रत्न विद्यमान रहते हैं। उनकी गणना करना तथा सीमा निर्धारित करना अत्यंत दुष्कर कार्य है फिर भी आचार्यों ने प्रमुख भावों की संख्या निर्धारित की है। भरत मुनि ने इनकी संख्या आठ मानी है। काव्य प्रकाशकार आचार्य मम्मट ने भी उनका ही अनुकरण किया है। ये इस प्रकार हैं1. रति स्त्री-पुरूष के पारस्परिक प्रेम को रति कहते हैं। 2. हास=किसी विकृति को देखकर जो प्रफुल्लता होती है उसे हास कहते हैं। 3. शोकप्रियजन के वियोग से उत्पन्न व्याकुलता शोक है। 4. क्रोध शत्रु को देखकर मानव हृदय में जो उत्तेजना होती है वही क्रोध है। 5. उत्साह वीरता आदि के लिये प्रवृत्त करने वाला भाव उत्साह है। 6. भय अनिष्ट कारणों की उपस्थिति पर उत्पन्न चित्त की व्याकुलता भय है। 7. जुगुप्सा घृणित वस्तुओं के दर्शन से, उनसे दूर रहने की इच्छा जुगुप्सा है। 8. विस्मय आश्चर्यमयी वस्तुओं को देखकर चित्त में उत्पन्न मनोविकार ही विस्मय है। इनके आधार पर आठ रसों को मान्यता दी गई है1.शृंगार
5. वीर 2. हास
6. भयानक 3. करुण
7. वीभत्स 4. रौद्र
8. अद्भुत कालान्तर में इनकी संख्या में वृद्धि होती गई। उदभट ने 'शान्त रस' को नवम् रस के रूप में स्थान दिया। निर्वेद इसका स्थायी भाव है। विश्वनाथ ने वत्सल नामक एक नये रस का उल्लेख किया है जिसका स्थायी भाव वात्सलय है। भगवत् विषयक रति के आधार पर भक्ति रस की स्थापना रूप गोस्वामी एवं मधुसुदन सरस्वती के द्वारा की गई। स्थायी भाव का परिपक्व रूप ही रस है। विभाव, अनुभाव संचारी भावों से पुष्ट होने पर ये ही 'रस' रूप में बदल जाते हैं। विभाव
हृदय सागर में भाव-उर्मियों को उद्वेलित करने के कारण रूप उपकरण ही विभाव कहलाते हैं। विभाव, कारण, निमित्त, हेतु, ये सब एक ही अर्थ के बोधक हैं। विभाव दो प्रकार के होते हैं- आलम्बन और उद्दीपन।
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