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अध्याय - 4
মা
-বধা
रस-निरूपण मानव एक संवेदनशील प्राणी है। संसार में रहते हुए वह विभिन्न प्रकार की घटनाओं से गुजरता है, अनेक प्रकार के मधुर-कटु अनुभव प्राप्त करता है। इस सबकी उसके हृदय पर प्रतिक्रिया होती है जिससे अनेक प्रकार के भाव हृदय में जाग्रत होने लगते हैं अत: मानव हृदय पर दृश्यमान जगत के प्रभावों की प्रतिक्रिया ही भाव है। इन भावों को अभिव्यक्ति देने के लिये वह आकुल रहता है और भाषा का माध्यम अपनाता है। इसे ही हम साहित्य कहते हैं। अभिव्यक्ति को सुन्दर सजीव और प्रांजल बनाने के लिये वह भाषा को अलंकारों से सजाता है, छंदों में बांधकर संवारता है तथा अन्य उपकरणों का आश्रय लेता है। इसी के आधार पर काव्य के अनुभूति पक्ष और अभिव्यक्ति पक्ष दो भाग होते हैं जिन्हें क्रमशः भाव पक्ष तथा कला पक्ष कहते हैं।
काव्य को पढ़ने, सुनने अथवा देखने से सामाजिक को जो असाधारण एवं अनिवर्चनीय आनन्द की प्राप्ति होती है उसे ही रस कहते हैं। रस उसे कहते हैं जो आस्वादित हो सके। आचार्यों ने काव्य में रस को अत्यधिक महत्व दिया है। यहाँ तक कि आचार्य विश्वनाथ ने रसयुक्त वाक्य को ही काव्य कहा है। रस के बिना रचना कविता की सीमा में प्रवेश नहीं कर पाती। मानव हृदय में अनेक भाव स्थायी रूप से विद्यमान रहते हैं। ये स्थायी भाव ही अनेक कारण, कार्य और सहकारी कारणों, जिन्हें क्रमशः विभाव, अनुभाव और संचारी भाव कहते है, के सहयोग से रस दशा को प्राप्त होते हैं। यहाँ भाव, विभाव आदि का पृथक पृथक सम्यक् विवेचन अपेक्षित है। स्थायी भाव
किसी वस्तु अथवा व्यक्ति के प्रति विशेष अवस्था में जो मानसिक स्थिति होती है उसे भाव कहते हैं। जो भाव चिरकाल तक चित्त में स्थिर रहता है, एवं जिसको विरुद्ध या अविरुद्ध भाव छिपा या दबा नहीं सकते, और जो विभावादि से सम्बद्ध होने पर रस-रूप में व्यक्त होता है, उस आनन्द के मूलभूत भाव को स्थायी भाव कहते हैं। ये भाव मानव हृदय में प्रसुप्त अवस्था
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