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18. "नरकन में जिय डारिये, पकर पकर के बाह।
जो करता ईश्वर कहो, तिनको कहा गुनाह।।" - भैया भगवतीदास, कर्ता अकर्ता पचीसी, छं0 सं0 12
डॉ0 प्रेमसागर जैन, जैन भक्तिकाव्य की पृष्ठभूमि, पृ0 सं0 25 20. 'पूजा कोटि समं स्तोत्र स्तोत्र-कोटिसमो जयः।
जय-कोटिसमं ध्यानं ध्यान-कोटिसमो लयः।।' अर्थात् कोटि बार पूजा करने का जो फल है उतना फल एक बार स्तोत्रपाठ करने में है। कोटि बार स्तोत्र पढ़ने से जो फल होता है, उतना फल एक बार जप करने में होता है। इसी प्रकार कोटि जप के समान एक बार के ध्यान का फल और कोटि ध्यान के समान एक बार के तप का फल जानना चाहिये। पं0 हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री, पूजा स्तोत्र, जप, ध्यान और लय, अनेकान्त, फरवरी 1957 पृ0 सं0 193
से उद्धृत। 21. "राम सो बड़ों है कौन, मोसो कौन छोटो।
राम सो खरो है कौन, मोसो कौन खोटो।।" - कवि तुलसीदास, विनयपत्रिका, छ) सं0 72 "न पूजयार्थ स्तवयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्त-वैरे। तथाऽपि ते पुण्य,-गुण-स्मृतिर्नः पुनाति चित्तं दुरिता जनेम्यः।।" -- आचार्य समन्तभद्र, स्वयम्भू स्तोत्र, पं0 जुगलकिशोर मुख्तार सम्पादित, हिन्दी अनूदित, 12, 2 पृ0 सं0 41 डॉ0 देवेन्द्र कुमार शास्त्री, अपभ्रंश का जयमाला साहित्य, अनेकान्त, अगस्त 1971, पृ0 सं0 128 श्री वृहत जैन शब्दार्णव भाग-1, सम्पादक श्री बी0 एल0 जैन,
चैतन्य, अकृत्रिम चैत्यालय, पृ0 सं0 22, अढ़ाई द्वीप पृ0 सं0 25 25. "हां, इनमें जो भावुक और प्रतिभा सम्पन्न हैं, जो अन्योक्तियों आदि
का सहारा लेकर भगवत्प्रेम, संसार के प्रति विरक्ति, करुणा आदि उत्पन्न करने में समर्थ हुए हैं वे अवश्य ही कवि क्या, उच्चकोटि के कवि कहे जा सकते हैं।" आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ0 सं0 324
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