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कुछ गाथाओं का अनुवाद दोहा छंदों में किया है।
अन्त में कवि ने इस कृति के उद्देश्य आदि पर प्रकाश डालते हुए सांत छंद और लिखे हैं। कवि ने बताया है कि द्रव्य संग्रह के गुण उदधि के समान हैं जिनका मैंने यथाशक्ति निजमति के अनुसार वर्णन किया है।
" द्रव्यसंग्रह गुण उदधि सम किंह विधि लहिये पार । यथाशक्ति कछु वरणिये, निजमति के अनुसार ।। '
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'निजमति' से हमें उपर्युक्त भाव - विस्तार का संकेत मिलता है । कवि ने केवल 'मक्षिका- स्थाने - 'मक्षिका' प्रवृत्ति को नहीं अपनाया, वरन् अपने आराध्य पूर्वाचार्य के भावों को पूर्णतः आत्मसात करके उनको अत्यंत स्पष्ट कर दिया है।
सामान्य बुद्धि के मनुष्य प्राकृत की मूल गाथाओं का अर्थ नहीं समझ सकते, अतः इस महत्वपूर्ण रचना को जन-सामान्य के लिये बोधगम्य बनाने के हेतु कवि ने इसका हिन्दी भाषा में अनुवाद तथा भाव विस्तार करके अत्यत लोकोपकारी कार्य किया है
" जो यह ग्रंथ कवित्त में होय । तौ जगमाहिं पढ़े सब कोय । इहविधि ग्रंथ रच्यो सुविकास। मानसिंह व भगोतिदास ।। " प्रस्तुत उदाहरण इस बात पर भी प्रकाश डालता है कि भैया भगवतीदास ने इस कृति की रचना अपने मित्र मानसिंह के सहयोग से की थी। डॉ0 प्रेमसागर जैन ने इस रचना को उनके मित्र मानसिंह कृत माना है किन्तु उपर्युक्त पंक्ति से यह अर्थ ध्वनित नहीं होता, प्रत्युत भैया भगवतीदास ने अपने मित्र मानसिंह के सहयोग से प्रस्तुत कृति की रचना की है। उक्त कृति की रचना माघ सुदि दशमी वि० सम्वत् 1731 को की गई थी।
संदर्भ एवं टिप्पणियाँ
डॉ० नगेन्द्र, कामायनी के अध्ययन की समस्यायें, पृ0 सं0 41, 42 " काया सी जु नगरी में चिदानंद राज करै, माया- सी जु रानी पै मगन बहु भयो है। मोह सो है फौजदार क्रोध सो है कोतवार,
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लोभ सो बजीर जहाँ लूटिबै को रहयो है । " - भैया भगवतीदास, शतअष्टोत्तरी, छं0 सं0 28
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