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आचार्य राजा भोज के समकालीन 11 वीं शताब्दी के महान विद्वान व कवि प्रतीत होते हैं।''32
इस ग्रंथ में जैन दर्शन का बहुत कुछ सार भर दिया गया है, इसमें तीन अधिकार हैं, प्रथम अधिकार में षट द्रव्यों का, द्वितीय अधिकार में सात तत्वों का तथा तृतीय अधिकार में मोक्षमार्ग स्वरूप रत्नत्रय-सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र का विस्तृत वर्णन किया गया है। प्रारम्भ से सत्ताईस गाथाओं तक प्रथम अधिकार, अट्ठाईस से अड़तीस गाथाओं तक द्वितीय अधिकार, तत्पश्चात् अट्ठावन गाथाओं तक तृतीय अधिकार है। दो पंक्तियों की संक्षिप्त सी गाथाओं में गहन एवं विस्तृत अर्थ भरे हुए हैं। भैया भगवतीदास ने स्वयं इस तथ्य की ओर संकेत किया है___ "गाथा मूल नेमिचन्द करी। महाअर्थ निधि पूरण भरी।।
बहुश्रुत धारी जे गुणवंत। ते सब अर्थ लखहिं विरतंत।।" द्रव्य संग्रह मूलतः प्राकृत में है, भैया भगवतीदास ने उसका हिन्दी कविता में अनुवाद किया है। मूल ग्रंथ में 58 गाथाएं हैं, कवि ने उसी क्रम से उन्हें 58 छंदों में बद्ध किया है, जिनमें अधिकतर कवित्त हैं, कुछ दोहा चौपाई, सवैया, कुंडलिया और छप्पय छंद भी हैं।
कवि ने मल भाषा की दो पंक्तियों का विस्तार कवित्त के चार चरणों में किया है। कवित्त के चार चरणों में सामान्य तथा प्रथम दो पंक्तियों मे मूल का अनुवाद है तथा शेष दो में उसी भाव का विस्तार है। मूल गाथा सहित एक उदाहरण दृष्टव्य है
"णिक्कम्मा अट्ठगुणा, किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा।
लोयग्गठिदा णिच्चा, उप्पादवयेहिं संजुत्ता।।" अनुवाद इस प्रकार है"अष्टकर्महीन अष्ट गुणयुत चरमसु।
देह तातें कछु ऊनो सुख को निवास है। लोकको जु अग्र तहां स्थित है अनन्त सिद्ध,
उतपादव्यय संयुक्त सदा जाको बास है। अनन्तकाल पर्यन्त थिति है अडोल जाकी,
लोकालोक प्रतिभासी ज्ञान को प्रकाश है। निश्चै सुखराज करै बहुरि न जन्म धरै, ऐसो सिद्ध राशनि को आतम विलास है।"
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