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प्रतिभा वाले कवि भी डूब जाते हैं। अपने द्वारा वर्णित चित्रकाव्य को उन्होंने उसी सागर की एक बूंद के एक कण के समान बताया है। किन्तु तत्कालीन कवि इस प्रकार के काव्य को निम्न कोटि का, अधम काव्य मानते थे। वस्तुतः इस प्रकार के काव्य में हृदय पक्ष लगभग शून्य होता था और मस्तिष्क का योगदान ही अधिक रहता था। कविता रूपी पक्षिणी के भाव-पक्षों को काट-छांटकर उसे नैसर्गिक सौंदर्य से विहीन कर दिया जाता था , वह पंगु हो जाती थी। भैया भगवतीदासकृत चित्र काव्य के कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं-1
त्रिपदीबद्ध चित्र
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त | नि
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15
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चित्र सं0 1 दोहा इस प्रकार है
"पर्म सेव पर सेव तज, निज उधरन मन धारि,
धर्म सेव वर सेव तज, निज सुधरन धन धारि।"
इस दोहे में प्रत्येक तीसरा वर्ण समान रखा गया है अर्थात् लिखा तो एक ही बार जाता है किन्तु पढ़ा दो बार जाता है, (चित्र में) प्रथम पंक्ति के साथ भी और तृतीय पंक्ति के साथ भी। इसमें निश्चित रूप से कवि की दृष्टि वर्ण चयन पर ही विशेष रूप से केन्द्रित रही है। इस दोहे का तो अर्थ स्पष्ट है, 'हे जीव पर-द्रव्य (शरीर) की सेवा छोड़कर परम भगवान जिनेन्द्र की सेवा कर अपने उद्धार की बात सोच। धर्म की सेवा ही श्रेष्ठ सेवा है वही स्वयं के सुधार के लिये धन सम्पदा है।' इसी दोहे को त्रिपदी पंचकोष्ठक एवं सप्तकोष्ठक त्रिपदी चित्र के रूप में भी दिया गया है।
एक ही दोहे को विभिन्न चित्रों में बद्ध करना अत्यंत दुष्कर कार्य होता है। स्पष्ट है कि इस प्रयास में कवि के मस्तिष्क को अत्यधिक व्यायाम करना पड़ा होगा।
शब्द क्रीड़ा का एक और चमत्कार देखिये, एक दोहा है
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