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"जैन धर्म में जीव की कही जात तहकीका
जैन धर्म में जीत की, लही बात यह ठीक।।" इसको कवि ने तीन प्रकार के चित्रों में बद्ध किया है। इनमें से अश्वगतिबद्ध चित्र के रूप में यहाँ प्रस्तुत है
अश्वगतिबद्ध चित्र
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चित्र सं0 2 जैसे शतरंज के खेल में अश्व की गति होती है (ढाई घर चलने की) वैसी ही गति पढ़ते समय इस चित्र में अपनाई जाती है अर्थात् प्रथम पंक्ति के प्रथम अक्षर के पश्चात् तृतीय पंक्ति का दूसरा अक्षर पढ़ा जाता है, तत्पश्चात् प्रथम पंक्ति का तृतीय, फिर तृतीय पंक्ति का चतुर्थ, इसी क्रम से सारा चित्र पढ़ा जाता है। शब्दों के इस गोरख धंधे को देखकर किसका मस्तिष्क चमत्कृत न हो उठेगा।
कवि के मस्तिष्क का व्यायाम यहीं तक सीमित नहीं है। प्रस्तुत सर्वतोभद्रगति चित्रम् में कितना चमत्कार है शब्द चयन का, जिस ओर से भी पढ़ेंगे एक ही दोहा बनेगा। चाहे आप इसे ऊपर से दायें से बायें पढ़ें चाहे बायें से दायें ऐसे ही नीचे से दायें से बायें या बायें से दायें पढ़ें अथवा दाहिनी ओर से नीचे से ऊपर ओर पढ़ें या ऊपर से नीचे की ओर, इसी प्रकार बाई ओर से पढ़े, एक ही दोहा बनेगा। दोहा इस प्रकार है
"न तन में मैन तन, तहेम सुसुमहेत। न मन में मन, मै सु मै हौं हौं मै सु मै।।"
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