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चित्रकाव्य अठारहवीं शताब्दी का युग भारत के सांस्कृतिक इतिहास में कंचन कामिनी और कादम्ब का युग था, प्रायः सभी राजा और सामन्त विलासिता के पंक में आकंठ मग्न रहते थे जिसका प्रभाव कविता कामिनी पर पड़ना भी स्वाभाविक ही था। कवि जन भी काव्य को जीविकोपार्जन का साधन बनाये हुए थे। वे अपने स्वामी की प्रवृत्ति के अनुकूल शृंगार रस की सरिता बहाकर अपने कविकर्म की इतिश्री कर रहे थे। उनकी स्वयं की प्रवृत्ति भी उसी में रम रही थी। नायिकाओं के एक-एक अंग प्रत्यंग का वर्णन करने में उनका मन जितना रम रहा था उतना किसी अन्य तत्व में नही, यहाँ तक कि उनकी धार्मिकता भी, जो राधा कृष्ण के नाम का आवरण मात्र ओढ़े हुए थी, शृंगारिकता से ओत-प्रोत थी। संस्कृत के रीतिग्रन्थों के अनुकरण पर विभिन्न अलंकारों तथा छंदों के लक्षण और उदाहरण देकर परम्परा का पिष्टपेषण करना ही उनका अभिप्रेत था किन्तु इसी समय कुछ जैन कवि शुद्ध आध्यात्मिक साहित्य सृजन भी कर रहे थे, जिससे हिन्दी साहित्य के इतिहासकार बहुत समय तक अनभिज्ञ रहे। जहाँ तक भाव सामग्री और विषयवस्तु का प्रश्न है इनमें से अधिकांश कवि अपने युग के विलास वैभव से अप्रभावित रहे,शृंगारिकता उनके मानस को स्पर्श भी न कर पाई किन्तु कला के क्षेत्र में ये भी अपने युग से अछूते न रह पाये। अलंकार व छंद उनके काव्य में सहजस्वाभाविक रूप में ही आये हैं, वे भावाभिव्यक्ति में साधन ही बने हैं, साध्य नहीं बन पाये हैं, किन्तु तत्कालीन कवियों की चमत्कार प्रियता को इन कवियों ने भी अपनाया है। इन्होंने कहीं एकाक्षरी दोहे लिखे हैं तो कहीं द्ववयक्षरी। कहीं प्रहेलिकाएं लिखी हैं जिनमें एक ही दोहे या कवित्त में बहुत से प्रश्न किये गये हैं और उसी में एक विशेष क्रम से पढ़ने पर, उनके उत्तर निकल आते हैं, इसी प्रकार बहुत से प्रश्नों का उत्तर एक ही शब्द में श्लेष से विभिन्न अर्थों के रूप में निकलता है। रीतिकालीन हिन्दी काव्य में चमत्कार-प्रियता सीमा को पार करने लगी थी यद्यपि इनका पथ प्रदर्शन तो लीला पुरुषोत्तम के क्रीड़ा रसिक सूरदास ही अपनी साहित्य लहरी द्वारा कर गये थे। इसी शब्द क्रीड़ा में चमत्कार का चरम बिन्दु चित्र-काव्य के रूप में दिखाई पड़ता है।
जैसा कि नाम से ही आभास हो जाता है कि चित्र के रूप में कविता
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