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________________ (12) सुपंथ कुपंथ पचीसिका इस संसार में जीव विभिन्न प्रकार की क्रियाओं में रत है उनमें से कौन सी उचित है कौन सी अनुचित है तथा उसे क्या करना चाहिये, यही बताना इस रचना में कवि का उद्देश्य है। जीव चेतना युक्त होते हुए भी अचेतन बना रहता है। वह सच्चे और झूठे देव, गुरु और शास्त्र में अन्तर नहीं कर पाता, बाहृय-आडम्बरों को धर्म का पंथ समझता है। सुपंथ वही है जिसे सर्वज्ञ प्रभु ने बताया है तथा जहाँ सब तत्वों का भेद बताया गया है। जीव द्रव्य जब पर-द्रव्यों से मोह त्याग देता है तब वह मोक्ष में जा पहुँचता हैं। यह रचना 27 कवित्त सवैया तथा दोहा छंदों में बद्ध है। (13) मोहभ्रमाष्टक जीव द्रव्य, अजीव द्रव्य पुद्गल (शरीर) से भिन्न है किन्तु वह भ्रम के कारण उसे भिन्न नहीं समझता, उसे ही अपना वास्तविक स्वरूप समझता है और उससे अत्यधिक प्रेम करता है यही जीव के सारे कष्टों का मूल है। जिनमत ने ही इस रहस्य को बताया है अन्य मत तो मानव की बुद्धि को और भी अधिक भ्रमित करने वाले हैं। वह युग खंडन मंडन का युग था अतः कवि ने भी उसी शैली को अपना कर अन्य मतमतान्तरों की आलोचना की है। प्रस्तुत रचना आठ कवित्त और तीन दोहा छंदों में निबद्ध है। (14) आश्चर्य चतुर्दशी वीतरागी तीर्थंकर जब अरहंत अवस्था में होते हैं अर्थात् सिद्ध (मुक्त) होने से पूर्व शरीर युक्त अवस्था में रहते हैं तब उनके असामान्य क्रिया कलापों को देखकर सामान्य जीव आश्चर्य में पड़ जाते हैं। वे बहुत समय तक भोजन नहीं करते। बोलते हैं तो उनके ओष्ठ नही हिलते किन्तु श्रोता अपनी-अपनी भाषा में उनके संदेश को ग्रहण कर लेते हैं। इस रचना में कवि ने बहिर्लापिका और अन्तर्लापिका पद्धति को अपनाया है जिसमें छप्पय के आरम्भिक भाग में स्वयं बहुत से प्रश्न करता है तत्पश्चात् आधी पंक्ति में उन सबके उत्तर भी दे देता है। प्रस्तुत रचना पन्द्रह कवित्त छप्पय और दोहा छंदों में निबद्ध है। (15) पुण्यपाप जग मूल पचीसी पुण्य और पाप ये दोनों ही संसार के मूल हैं इनके कारण ही संसार में सुखी मनुष्य दुखी दिखाई देता है। इन दोनों से पृथक होने पर ही सुख की प्राप्ति सम्भव है। किन्तु जीव तो अनादिकाल से भ्रम की नींद में सो रहा है, (83) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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