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________________ मृत्यु को प्राप्त होते हैं तथा चक्रवर्ती सम्राट भी काल के मुख से नहीं बच पाते । किन्तु वे सिद्ध परमात्मा धन्य हैं जिन्होंने ऐसे बलिष्ठ काल को भी विजय कर लिया है, अतः मानव मात्र को उन्हीं की आराधना करनी चाहिये । यह रचना आठ दोहा छंदों में निबद्ध है। ( 9 ) उपेदश पचीसिका यह जीव अनन्तकाल से विभिन्न गतियों में भटक रहा है तथा अनन्त कष्ट भोग रहा है। उन कष्टदायी परिस्थितियों में और अधिक रहकर क्या करना है। । इस रचना का केन्द्रीय भाव इसी अर्द्धाली पर आधारित है " एते पर एता क्या करना" (जो प्रत्येक चौपाई के अन्त में है) निगोद में जीव एक श्वास में 18 बार जन्म लेता व मरता है, स्थावर जीव के रूप में अनेक कष्टों को भोगता है। पशु पक्षी के शरीर रूप में अनेक दुखों को सहता है नरक गति के दुख तो असीम है। बड़ी कठिनाई से मनुष्य पर्याय मिलती है मनुष्य फिर भी विषय भोगों में लिप्त हो जाता है । कवि मानव को सचेत करना चाहता है" परसंगति के तो दुख पावै, तबहु तोको लाज न आवै । वासन संग नीर ज्यों, जरना एते पर एता क्या करना । । " कवि ने 24 चौपाई और 3 दोहों में बद्ध इस कृति की रचना वि० सं० 1741 के मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष में की है। (10) सुबुद्धि चौबीसी जैन धर्म मान्य तीर्थंकरों की वंदना करने के पश्चात् कवि ने बाहय आडम्बर जटाजूट धारण करना, शरीर में भस्म लगाना आदि की व्यर्थता सिद्ध करके मानव देह के प्रति मोह त्याग कर वीतरागी बनने का संदेश दिया है। यह रचना 24 कवित्त सवैया, अनंगशेखर, छप्पय दोहा छंदों में निबद्ध है। ( 11 ) अनित्य पचीसिका कवि की दृष्टि इस रचना में संसार और जीवन की क्षणभंगुरता पर ही केन्द्रित रही है। मनुष्य यह जानते हुये भी कि इस संसार में उसे सदैव नहीं रहना है और न ही वह कुछ साथ ले जा सकता है तब भी झूठ सच बोलकर कोटि-कोटि संग्रह करने में रत रहता है। कवि मनुष्य को सचेत करते हुए, विषय वासनाओं तथा बाहृय आडम्बरों से दूर रहकर जिनवाणी पर श्रद्धा रखने का उपदेश देता है, उसी से उसका उद्धार सम्भव है। पूरी रचना छब्बीस कवित्त और दोहा छंदों में निबद्ध है। Jain Education International (82) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002541
Book TitleBhaiya Bhagavatidas aur Unka Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2006
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size10 MB
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