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अर्थात् इन्द्रियों को वश में करने तथा कनक एवं कामिनी से विरत रहने का संदेश देता है। 'घ' मनुष्य को 'स्वघर' (मोक्ष) को पहिचानने का संदेश देता है तो 'च' चंचल मन को स्थिर करने का। 'ज' जैन धर्म में श्रद्धा करने का, 'ठ' वर्ण अष्ट कर्मरूपी आठ ठगों से सावधान रहने का, 'प' परमपद की प्राप्ति की प्रेरणा देता है। इस प्रकार प्रत्येक अक्षर कोई न कोई उपदेश देता है। प्रस्तुत रचना में कलापक्ष की प्रधानता है तथा जायसी के 'अखरावट' से साम्य है। यह रचना पैंतीस दोहा चौपाई आदि छंदों में निबद्ध है। (3) फुटकर कविता
यद्यपि संग्रह में फुटकर कविता के कुछ छंद जिनपूजाष्टक के पश्चात् रखे गये हैं और छंद संख्या जिनपूजाष्टक के बारह छंदों के पश्चात् तेरह से आरम्भ की गई है तथापि इन फुटकर कवित्तों का जिनपूजाष्टक से कोई सम्बन्ध नहीं है। और सूची में भी इसका नाम एक स्वतंत्र रचना के रूप में दिया गया है। चार छंदों में से एक में भगवान के अष्टप्रातिहार्य का वर्णन तथा शेष में बहुदेववाद का त्याग, भगवान पार्श्वनाथ की उपासना, जिनेन्द्र भगवान की महत्ता तथा सिद्ध और ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन किया गया है। तत्पश्चात् एकाक्षरी, द्वयक्षरी, त्र्यक्षरी, चतुरक्षरी और प्रश्नोत्तर रूप में पाँच दोहे है जिनमें कलात्मक चमत्कार अधिक है। (4) शिक्षा छंद
जैसा कि इसके नाम से ही विदित होता है इस रचना में कवि ने मानव को शरीर और संसार की नश्वरता का संदेश देकर स्वयं को पहचानने की शिक्षा प्रदान की है। "रे मूढ़ अचेतन. कछु इक चेतो, आखिर जग में मरना है," यही मुख्य पंक्ति है और यही मुख्य भाव है। तत्पश्चात् भिन्न-भिन्न सांसारिक तत्वों की क्षणभंगुरता की ओर संकेत कर अंत में कवि ने कहा है कि मानव, जिनदेव का स्मरण कर जिससे तेरा उद्धार हो सकता है। प्रस्तुत रचना में 12 दोहा और मरहठा छंदों का प्रयोग किया गया है। (5) परमार्थ पद पंक्ति
__ प्रस्तुत रचना गेय पदों का संग्रह है जिनमें विभिन्न विषयों पर कवि के हृदय की तीव्र अनुभूति निर्झर के रूप में प्रवाहित हुई है। इनमें प्रथम पंक्ति में ही पूरे पद का मुख्य भाव समाहित रहता है और उसी पंक्ति की बार-बार आवृति होती है। कहीं वह शरीर की निकृष्टता बताते हुए कह उठता है 'या देही को शुचि कहा कीजे,' कहीं मनुष्य जन्म को बहुमूल्य बताकर उसको
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