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से पर्याप्त प्रसिद्धि भी प्राप्त कर चुकी हैं। पाली साहित्य में 'धम्मपद' जिसे बौद्ध धर्म की गीता कहा गया है तथा भगवान बुद्ध की पूर्वजन्म की कथाओं का संग्रह 'जातक' तथा प्राकृत भाषा में 'गाहा सतसई' का नाम इस दृष्टि से उल्लेखनीय है। इनके अतिरिक्त भी विपुल साहित्य इस दृष्टि से उपलब्ध है। हिन्दी साहित्य में भी कबीर, तुलसी, रहीम, गिरिधर कविराय, भैया भगवतीदास, भूधर दास आदि ने भी उपदेशपरक साहित्य की रचना की है। यहाँ भैया भगवतीदास की उपदेशप्रधान रचनाओं का परिचय दिया जा रहा है। (1) पुण्यपचीसिका
इस रचना में कवि ने पहले सामूहिक रूप से पंचपरमेष्ठी - अरहंत सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु की पृथक-पृथक रूप से विशेषताएं बताते हुए स्तुति की है। तत्पशचात् कवि सांसारिक मानव को अपना आत्मोत्थान करने के लिये विभिन्न प्रकार से उपदेश देता है। इस नाशवान संसार में आत्मा ही एक शाश्वत सत्य है अतः उसी के विकास में रत रहना चाहिये। मूर्ख मानव पाँचों इन्द्रियों के विषय सुख में रत रहता है और उन पाप कर्मों का बंधन करता है जो उसे नरकादिक दुखों की प्राप्ति कराते हैं। संसार के सभी ऐश्वर्य सुख समृद्धि जिन पर अज्ञानी मानव गर्व करता है, नश्वर हैं, धूम्र मेघ के समान क्षणभंगुर है 27 सांसारिक सम्बंध माता, पिता, सुत, बनिता, बन्धु सब मिथ्या हैं, इनके मोह के वशीभूत होकर यह जीव संसार के अन्य पदार्थों से रागद्वेष की भावना रखता है और इसी कारण कर्मों का बंधन होता है। विषयासक्त और रागद्वेष से युक्त मानव ज्ञानशास्त्रों का नित्यप्रति मनन करने पर भी उसी प्रकार अज्ञानी है जिस प्रकार रसव्यंजन में करछी निरन्तर बनी रहने पर भी उसके स्वाद को ग्रहण नहीं करती। 28 पच्चीस कवित्त, सवैया, दोहा, आदि छंदों में निबद्ध इस काव्य की रचना कविवर भैया भगवतीदास ने संवत् 1733 मे फागुन मास में कृष्ण पक्ष में की।
(2) अक्षर बत्तीसिका
प्रस्तुत रचना में कविवर भैया भगवतीदास जी ने हिन्दी वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर के आधार पर मानव को कोई न कोई उपदेश दिया है। मानव यदि इनसे अपने जीवन को एकाकार करले तो संसार के बंधनों को काट कर मुक्ति की प्राप्ति कर सकता है। सर्वप्रथम वर्णमाला के सभी अक्षर पंच परमेष्ठी (अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु) के प्रतीक रूप 'ओम्' का नमन करता हैं। तत्पश्चात् वर्णमाला का प्रथम व्यंजन 'क' मानव को करन
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