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वृद्धि होती हुई आपकी पुण्य ऋद्धि के क्रम के समान एक दूसरे पर पाये हुए तीन छत्र मानो तीनों लोकों में छाई हुई आपकी प्रभुता की प्रौढ़ता बता रहे हैं । (८)
एतां चमत्कारकरों, प्रातिहार्यश्रियं तव ।
चित्रीयन्ते न के दृष्ट्वा, नाथ ! मिथ्यादृशोऽपि हि ॥६॥ हे नाथ ! चमत्कारपूर्ण आपकी इस प्रातिहार्य लक्ष्मी को देखकर किन मिथ्यात्वियों को आश्चर्य नहीं होता ? अर्थात् सभी को आश्चर्य होता है । (६)
छठा प्रकाश
लावण्यपुण्यवपुषि, त्वयि नेत्रामृताञ्जने ।
माध्यस्थ्यमपि दौःस्थ्याय, कि पुनद्वेषविप्लवः ॥१॥ नेत्रों के लिये अमत के अञ्जन के समान और लावण्य से पवित्र देह वाले आपके लिये मध्यस्थता धारण करना भी दुःख के लिये है, तो फिर द्वेष भाव धारण करने वालों के लिये तो कहना ही क्या ? (१)
तवापि प्रतिपक्षोऽस्ति, सोऽपि कोपादिविप्लुतः।
अनया किंवदन्त्याऽपि, कि जीवन्ति विवेकिनः ।।२।।
आपके भी प्रतिपक्षी (शत्रु) हैं और वे भी क्रोध आदि से व्याप्त हैं। इस प्रकार की किंवदन्ति (कुत्सित बात) सुनकर विवेकी पुरुष क्या प्राण धारण कर सकते हैं ? कदापि नहीं। (२)
विपक्षस्ते विरक्तश्चेत्, स त्वमेवाथ रागवान् ।
न विपक्षो विपक्षः कि, खद्योतो द्य तिमालिनः? ॥३॥
आपका विपक्ष यदि विरक्त है तो वह आप ही हैं और यदि रागी है तो वह विपक्ष ही नहीं है । वया सूर्य का शत्रु (विपक्ष) खद्योत (जुगनू) हो सकता है ? (३)
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[ जिन भक्ति
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