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________________ स्पृहयन्ति वद् योगाय यत्तेऽपि लवसत्तमाः । योग-मुद्रादरिद्राणां परेषां तत्कथैव का ? ॥४॥ आपके योग की स्पृहा लवसप्तम अनुत्तर विमानवासी देव भी करते हैं। योग - मुद्रा से रहित पर दार्शनिकों में उस योग की बात भी क्यों हो ? नहीं होगी । (४) त्वां प्रपद्यामहे नाथं त्वां स्तुमस्त्वामुपास्महे । त्वत्तो हि न परस्त्राता, कि ब्रूमः ? किमु कुर्महे ? ॥५॥ आपको हम नाथ के रूप में स्वीकार करते हैं, प्रापकी हम स्तुति करते हैं और आपकी हम उपासना करते हैं; क्योंकि आपसे अधिक अन्य कोई हमारा रक्षक नहीं है, आपकी स्तुति से अधिक अन्य कुछ भी बोलने योन्य नहीं है और आपकी उपासना से अधिक अन्य कुछ भी करने योग्य नहीं है । (५) स्वयं मलीमसाचारै:, प्रतारणपरैः परैः । वञ्चयते जगदप्येतत्कस्य पूत्कुर्महे पुरः ? ॥६॥ स्वयं मलिन प्रचार वाले और पर को ठगने में तत्पर अन्य देवों के द्वारा यह विश्व ठगा जा रहा है । हे नाथ ! हम किसके समक्ष जाकर पुकार करें ? ( ६ ) नित्यमुक्तान् जगज्जन्म - क्षेमक्षयकृतोद्यमान् । वन्ध्यास्तनन्धयप्रायान्, को देवाश्चेतनः श्रयेत् ॥७॥ नित्य मुक्त एवं जगत् की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय करने में प्रयत्नशील वन्ध्या (बांझ ) के पुत्र के समान देवों का कौन सचेतन व्यक्ति आश्रय ग्रहण करेगा ? (७) कृतार्था जठरोपस्थ - दुः स्थितैरपि दैवतैः । भवादृशान्निह्नवते, हा हा ? देवास्तिकाः परे ॥ ८ ॥ जठर (उदर) एवं उपस्थ (इन्द्रियवर्ग) से पीडित देवों से कृत्कृत्य बने अन्य देव - आस्तिक कुर्तीर्थिक आप जैसे का अपलाप करते है, जो सचमुच अत्यन्त दुखः का विषय है । ( ८ ) जिन भक्ति ] Jain Education International For Private & Personal Use Only [ 81 www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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