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मालवकैशिकी मुख्य - ग्रामरा गपवित्रितः ।
तव दिव्यो ध्वनिः पोतो, हर्षोद्ग्रीवैमृगैरपि ॥ ३ ॥
मालकोस आदि ग्राम राग से पवित्र बनी आपकी दिव्य ध्वनि का ऊंची गर्दन वाले मृगों ने भी हर्ष से पान किया है । (३)
तवेन्दुधामधवला, चकास्ति चमरावली । हंसा लिवि वक्त्राब्ज -परिचर्यापरायणा ||४|| चन्द्रमा की कान्ति के समान उज्ज्वल चामरों की श्रेणी मानो आपके मुख कमल की सेवा में तत्पर हंसों की श्रेणी के समान सुशोभित है । (४)
मृगेन्द्रासन मारूढे त्वयि तन्वति देशनाम् ।
श्रोतु मृगास्समायान्ति मृगेन्द्रमिव सेवितुम् ||५||
देशना देने के लिये आपके सिंहासन पर बैठने पर आपकी देशना का श्रवण करने के लिए जो मृग प्राते हैं वे मानो अपने स्वामी मृगेन्द्र ( सिंह ) की सेवा करने के लिए प्राते हुए प्रतीत होते हैं । (५)
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भासां चयैः परिवृतो, ज्योत्स्नाभिरिव चन्द्रमाः । चकोराणामिव दृशां ददासि परमां मुदम् ॥ ६ ॥
जिस प्रकार ज्योत्स्ना युक्त चन्द्रमा चकोर पक्षियों के नेत्रों को आनन्द प्रदान करता है, उसी प्रकार से तेज - पुज - स्वरूप भामण्डल से युक्त आप सज्जनों के चक्षुत्रों को परमानन्द प्रदान करते हैं । (६)
जिन भक्ति ]
दुन्दुभिविश्वविश्वेश !, पुरो व्योम्नि प्रतिध्वनन् । जगत्या तेषु ते प्राज्यं, साम्राज्यमिव शंसति ॥७॥
हे समस्त विश्व के ईश ! आकाश में आपके आगे प्रतिध्वनि करती हुई देव - दुन्दुभिमानो विश्व के प्राप्त पुरुषों में आपका परम साम्राज्य है यह घोषणा करती हो, उस प्रकार से ध्वनि करती है । ( ७ )
तवोर्ध्व मूर्ध्व पुर्ष्याद्ध त्रिभुवन
छत्रत्रयी
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- क्रमसब्रह्मचारिणी ।
- प्रभुत्वप्रौढिशंसिनी ॥ ८ ॥
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