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________________ पञ्चेन्द्रियाणां दौःशील्यं, क्व भवेद् भवदन्तिके । एकेन्द्रियोऽपि यन्मुञ्चत्यनिलः प्रतिकूलताम् ॥१२॥ आपके समक्ष पंचेन्द्रिय तो दुष्टता कर हो कैसे सकते हैं, क्योंकि एकेन्द्रिय वायु भी आपके समक्ष प्रतिकूलता का त्याग कर देता है । (१२) मां नमन्ति तरवस्त्वन्माहात्म्यचमत्कृताः। तत्कृतार्थं शिरस्तेषां, व्यर्थ मिथ्यादृशां पुनः ॥१३॥ हे प्रभु ! आपके माहात्म्य से चमत्कृत वृक्ष भी आपके समक्ष नत मस्तक होते हैं जिससे उनके मस्तक कृतार्थ हैं, किन्तु आपके समक्ष नत मस्तक नहीं होने वाले मिथ्यात्वियों के मस्तक व्यर्थ हैं । (१३) जघन्यतः कोटिसंख्यास्त्वां सेवन्ते सुरासुराः । भाग्यसम्भारलभ्येऽथं, न मन्दा अप्युदासते ।।१४॥ हे प्रभु ! जघन्य से एक करोड़ देव एवं असुर आपकी सेवा करते हैं; क्योंकि भाग्योदय से प्राप्त पदार्थ के लिये मन्द प्रात्मा भी उदासीन नहीं रहते । (१४) पांचवां प्रकाश गायन्निवालि विरुतैर्नृत्यन्निवचलैदलैः । त्वद्गुणरिव रक्तोऽसौ, मोदते चैत्यपादपः ॥१॥ हे नाथ ! भौंरों के गुञ्जन से मानो गीत गाता हो, चंचल पत्तों के द्वारा मानो नत्य करता हो तथा आपके गुणों से मानो रक्त हा हो उस प्रकार से यह अशोक वृक्ष प्रफुल्लित हो रहा है । (१) प्रायोजनं सुमनसोऽधस्तान्निक्षिप्तबन्धनाः । जानुदध्नीः सुमनसो, देशनोयां किरन्ति ते ॥२॥ हे नाथ ! एक योजन तक जिनके दींटड़े नीचे हैं ऐसे जानु प्रमाण पुष्पों को देवतागण आपकी देशना भूमि पर बरसाते हैं । (२) 78 ] [ जिन भक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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