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सैकड़ों जन्मों के संचित पाप - पुञ्ज क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं, हृदय में परमात्म- गुणों का स्थायित्व होने से कर्म के दृढ़ बन्धन भी शिथिल हो जाते हैं और परमात्म- गुणों का ध्यान, चिन्तन एवं बार-बार स्मरण होने से दुरुच्छेद्य एवं दीर्घ संसार का भी शीघ्र उच्छेद हो जाता है । ये समस्त बातें उन महापुरुषों को परम प्रिय होती हैं ।
परमात्मा के अद्भुत गुणों को स्मृति पटल पर लाने के लिये तथा बुद्धि एवं प्रतिभा से उन्हें वाणी द्वारा व्यक्त करने के लिये उक्त उपाय को काम में लाये बिना किसी से भी परमात्म स्वरूप का वास्तविक ध्यान नहीं हो सकता । गोचर परमात्म स्वरूप को गोचर करने के लिये तथा अकथनीय परमात्म- गुणों को व्यक्त करने के लिये प्रतिभाशाली महापुरुषों ने जो अद्वितीय प्रयास किए हैं उसके फलस्वरूप जो अनेक स्तोत्र आज भी उपलब्ध हैं, उनमें से चुन-चुन कर कुछ इस पुस्तक में प्रकाशित किये गये हैं । श्री जिनेन्द्र भगवान के गुणों का स्तवन करने के लिये ये स्तोत्र जैन साहित्य में अग्रगण्य हैं । इनके अतिरिक्त अनेक अन्य स्तवनों एवं स्तुतियों की भी तत्पश्चात् रचना हुई है; परन्तु उन समस्त का "बीज रूप में" सर्वस्व इन स्तोत्रों में विद्यमान है, यह विद्वान पाठकगरण को ज्ञात हुए बिना नहीं रहेगा ।
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प्रारम्भ में श्री वर्धमान द्वात्रिंशिका है, जिसके रचयिता श्री सिद्धसेन दिवाकर सूरि, जैन साहित्य में प्राद्य स्तुतिकार के रूप में प्रसिद्ध हैं । कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरिजी ने "अनुसिद्धसेनाः कवयः " कहकर उनकी असाधारण प्रशंसा की है । श्री सिद्धसेन दिवाकर सूरिजी ने जिन स्तुतिगर्भित अन्य अद्भुत द्वात्रिंशिकाओं एवं स्तोत्रों की भी रचना की है; उन सब में यह स्तुति सर्वाधिक सरस एवं सरलता पूर्वक ग्राह्य है, जिससे बाल - जीवों के लिये अधिक उपकारक है ।
तत्पश्चात् श्री सिद्ध गरि रचित "श्री जिन स्तवन" एवं कवि श्री धनपाल द्वारा रचित " श्री ऋषभ पंचाशिका" नामक दो स्तुतियाँ दी गई हैं । ये दोनों स्तुतियाँ भी अत्यन्त सरल, स्पष्ट एवं ज्ञान, भक्ति तथा वैराग्य रस से परिपूर्ण हैं । परमार्हत् कवि श्री धनपाल रचित "श्री ऋषभपंचाशिका" का स्वयं कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरिजी के समान समर्थ महापुरुषों ने अत्यन्त सम्मान किया है और श्री शत्रु जय पर श्री ऋषभदेव
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[ जिन भक्ति
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