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प्रस्तावना
श्री जिन गुणों का स्तवन बृहस्पति के लिये भी असंभव है । दो भुजाओं के बल पर पृथ्वी को उठाना अथवा स्वयंभूरमण सागर को पार करना जितना कठिन है, असंभव है, उतना ही कठिन कार्य श्री जिनेश्वर देवों के गुणों का वर्णन करना है । जिस प्रकार दिन के समय अंधा उल्लू अथवा जन्मान्ध व्यक्ति सूर्य के सौन्दर्य का सामान्यतया भी वर्णन नहीं कर सकता, उसी प्रकार छद्मस्थ आत्मा भी श्री जिनेश्वर के प्ररूपी अनन्त गुणों का वर्णन करने में सर्वथा समर्थ ही है । श्री जिनेश्वर देवों के गुरणों का वर्णन इतना गहन और उनकी संख्या इतनी अधिक होती है कि अतीन्द्रिय ज्ञान के द्वारा उन समस्त गुणों को प्रत्यक्ष देखने वाले केवलज्ञानी महर्षि भी उनका सम्पूर्ण एवं समुचित वर्णन नहीं कर सकते, क्योंकि प्रायु परिमित होती है, वाणी क्रमवर्ती होती है और गुणों का स्वरूप श्रवण प्रादि इन्द्रियों के लिये अगोचर होता है ।
इन्द्रियों एवं वाणी के लिये अगोचर गुणों का वर्णन करना और उन्हें इन्द्रियों से प्रत्यक्ष कराना, यह हर तरह से असंभव कार्य है, तब भी परमात्म - गुणों के प्रति अपनी अतिशय श्रद्धा-भक्ति व्यक्त करने के लिये जिन गुण रसिक महापुरुषों द्वारा श्री जिन गुणों का स्तवन करने के लिये प्रयास किया गया है, उनके उपहार स्वरूप ही आज हमें स्तोत्र प्राप्त होते हैं | अपनी दोनों भुजाएं फैला कर जिस प्रकार बालक समुद्र की विशालता का हमें परिचय कराता है, उसी प्रकार से ये स्तोत्र हमें परमात्मा के अनन्त गुणों की किंचित् झलक दिखाते हैं ।
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परमात्मा के उन गुणों को अपनी वाणी के द्वारा व्यक्त करने के जो अनेक प्रयोजन कवित्व शक्ति प्राप्त महापुरुषों के होते हैं, उनमें एक प्रयोजन यह भी होता है कि उसके द्वारा वे अपना चित्त परमात्मा के गुणों में केन्द्रित कर सकते हैं और परमात्म-गुरणों में चित्त की तन्मयता होने से
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