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वे लोक के अग्र भाग रूपी शिखर पर आरुढ़ होते हैं, वे सदा अपने स्वभाव में अवस्थित होते हैं, संसार के प्रपंचों से सर्वथा मुक्त होते हैं और अनन्त सिद्धों की अवगाहना में रहे हुए होते हैं । (२३)
ईलिका भ्रमरीध्यानाद, भ्रमरीत्वं यथाऽश्नुते ।
तथा ध्यायन् परात्मानं, परमात्मत्वमाप्नुयात् ॥२४॥ भ्रमरी के ध्यान से जिस प्रकार ईलिका भ्रमरी बन जाती है, उसी प्रकार से परमात्मा का ध्यान करने वाली आत्मा परमात्मत्व प्राप्त करती है । (२४)
परमात्मगुरणानेवं', ये ध्यायन्ति समाहिताः ।
लभन्ते निभृतानन्दा -स्ते यशोविजयश्रियम् ॥२५॥ इस प्रकार समाधियुक्त मनवाले पुरुष जो परमात्मा के गुणों का ध्यान करते हैं, वे परिपूर्ण आनन्दमय बन कर यश का विजय करने वाली लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं, अथवा श्री यशोविजय की लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं। (२५)
१. गुरगानेन ।
जिन भक्ति ]
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