SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपाधिजनिता भावा, ये ये जन्मजरादिकाः । तेषां तेषां निषेधेन, सिद्ध रूपं परात्मनः ॥१८॥ कर्म रूपी उपाधि से उत्पन्न होने वाले जो-जो जन्म, जरा आदि भाव हैं उन-उन भावों का निषेध होने पर परमात्मा का स्वरूप सिद्ध होता है। (१८) प्रतव्यावृत्तितो भिन्नं, सिद्धान्ताः कथयन्ति तम् । वस्तुतस्तु न निर्वाच्यं, तत्स्वरूपं' कथञ्चन ॥१६॥ "वह इस प्रकार का नहीं है" यह कह कर सिद्धान्त उसके रूप का वर्णन करते हैं, परन्तु वस्तुतः परमात्मा के स्वरूप का किसी भी प्रकार से वर्णन नहीं किया जा सकता। (१६) जानन्नपि यथा म्लेच्छो, न शक्नोति पुरीगुणान् । प्रवक्तुमुपमाऽभावात, तथा सिद्धसुखं जिनः ॥२०॥ गांव का निवासी नगर के गुणों को जानते हुए भी उपमाओं के अभाव में उनके विषय में कुछ कह नहीं सकता, इसी प्रकार केवलज्ञानी महात्मा भी उपमानों के अभाव में सिद्ध परमात्मा के सुख का वर्णन नहीं कर सकते । (२०) सुरासुराणां सर्वेषां, यत्सुखं पिण्डितं भवेत् । एकत्राऽपि हि सिद्धस्य, तदनन्ततमांशगम् ॥२१॥ समस्त सुरासुरों के सुख को यदि एक स्थान पर एकत्रित कर लिया जाये तो भी वह एक सिद्ध के सुख के अनन्तवें भाग जितना भी नहीं होता। (२१) अदेहा दर्शनज्ञानो -पयोगमयमूर्तयः । प्राकालं परमात्मानः , सिद्धाः सन्ति निरामयाः ।।२२।। सिद्ध परमात्मा देहरहित, दर्शन एवं ज्ञानोपयोग स्वरूप से युक्त तथा सर्वदा रोग एवं पीडारहित होते हैं । (२२) लोकाग्रशिखरारूढ़ाः , स्वभावसमवस्थिताः । भवप्रपञ्च निर्मक्ताः , युक्तानन्ताऽवगाहनाः ॥२३॥ १. तस्य रूपं । 68 ] [ जिन भक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy