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________________ ननं मुमुक्षवः सर्वेः , परमेश्वरसेवकाः। दुरासन्नादिभेदस्तु, तभृत्यत्वं निहन्ति न ॥१२॥ समस्त मुमुक्षु आत्मायें निश्चित रूप से परमेश्वर के सेवक ही हैं । दूर, समीप आदि का भेद उनके सेवकत्व में तनिक भी बाधक नहीं होता। (१२) नाममात्रेण ये दृप्ता, ज्ञानमार्गविवजिताः । न पश्यन्ति परात्मानं', ते घूका इव भास्करम् ॥१३॥ ज्ञान-मार्ग से रहित एवं परमात्मा के नाम मात्र से अभिमानी बने पुरुष, जिस प्रकार उलूक (उल्लू) सूर्य को नहीं देख सकता उसी प्रकार, परमात्मा को देख नहीं सकते । (१३) श्रमः शास्त्राश्रयः सर्वो, यजज्ञानेन फलेग्रहिः । ध्यातव्योऽयमुपास्योऽयं, परमात्मा निरञ्जनः ॥१४॥ शास्त्र-सम्बन्धी समस्त परिश्रम, जिनका ज्ञान होने के पश्चात ही सफल होता है, वे एक निरंजन परमात्मा ही ध्यान करने योग्य एवं उपासना करने योग्य हैं । (१४) नान्तराया न मिथ्यात्वं, हासो ख्यरतो च न । न भीयस्य जुगुप्सा नो, परमात्मा स मे गतिः ॥१५॥ जिनके अन्तराय नहीं है, मिथ्यात्व नहीं है, हास्य नहीं है, रति नहीं है, अरति नहीं है, भय नहीं है और जुगुप्सा नहीं है वे परमात्मा मुझे शरण-गति देने वाले बनें । (१५) न शोको यस्य नो कामो, ना ज्ञानाविरतो तथा । नावकाशश्च निद्रायाः , परमात्मा स मे गतिः ॥१६॥ जिन्हें शोक नहीं है, काम नहीं है, अज्ञान नहीं है, अविरति नहीं है तथा नींद का अवकाश नहीं है वे परमात्मा मेरे शरण-भूत हों । (१६) रागद्वेषौ हतौ येन, जगतत्रय भयंकरौ । स त्राणं परमात्मा मे, स्वप्ने वा जागरेऽपि वा ॥१७॥ तीनों लोकों के लिये भयंकर राग एवं द्वष को जिन्होंने नष्ट कर दिया है वे परमात्मा स्वप्न में अथवा जागृत अवस्था में मेरे रक्षक बनें। (१७) १. परेशानं । जिन भक्ति ] [ 67 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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