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________________ कलिकालसर्वज्ञ-श्रीमद-हेमचन्द्राचार्य-विरचित * वीतराग-स्तोत्रम् * प्रथम प्रकाश यः परात्मा परंज्योतिः परमः परमेष्ठिनाम् । आदित्यवर्ण तमसः , परस्तादामनन्ति यम् ॥१॥ जो परात्मा, परंज्योति एवं परमेष्ठियों में प्रधान है, जिन्हें पण्डितगण अज्ञान से पार पाये हुए एवं सूर्य के समान उद्योत करने वाले मानते हैं । (१) सर्वे येनोदमूल्यन्त, समूला: क्लेशपादपाः । मूर्ना यस्मै नम्रस्यन्ति, सुरासुरनरेश्वराः ॥२॥ जिन्होंने राग आदि क्लेश-वृक्षों का समूल उन्मूलन कर दिया है, जिनके (चरणों में) सुर, असुर, मनुष्य एवं उनके अधिपति नत मस्तक होते हैं । (२) प्रावर्तन्त यतो विद्याः, पुरुषार्थप्रसाधिकाः । यस्य ज्ञानं भवद्भावि - भूतभावावभासकृत् ॥३॥ जिनसे पुरुषार्थ को सिद्ध करने वाली शब्द आदि विद्याएँ प्रवर्तित हैं, जिनका ज्ञान वर्तमान, भावि और भूत भावों का प्रकाशक है । (३) यस्मिन्विज्ञानमानन्दं, ब्रह्म चैकामत्तां गतम् । स श्रद्ध यः स च ध्येयः , प्रपद्य शरणं च तम् ॥४॥ जिनमें विज्ञान-केवलज्ञान, आनन्द-सुख और ब्रह्म-परमपद ये तीनों एकात्म-एकरूप हो गये हैं; वे श्रद्धय हैं तथा ध्येय हैं और मैं उनकी शरण अङ्गीकार करता हूं। (४) 70 ] [ जिन भक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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