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________________ प्रकार से चारित्र रूपी परम ज्योति से प्रकाशित प्रात्मा वाले मुनिगण अज्ञानान्धकार को नष्ट कर डालते हैं। (१६) प्रच्छन्नं परमं ज्योति - रात्मनोऽज्ञानभस्मना । क्षरणादाविर्भवत्युग्र - ध्यानवातप्रचारतः ॥१७॥ आत्मा की परम ज्योति प्रज्ञान रूपी भस्म से आच्छादित है। उग्र ध्यान रूपी वायु के प्रचार से क्षण भर में उसका आविर्भाव होता है । (१७) परकीय प्रवृत्तौ ये, मूकान्धबधिरोपमाः। स्वगुरणार्जन'-सज्जास्तैः , परमं ज्योतिराप्यते ॥१८॥ जो परकीय प्रवृत्ति में मूक, अन्ध और बधिर की उपमा से युक्त हैं तथा स्वगुण के उपार्जन में सज्ज हैं, वे परम ज्योति को प्राप्त करते हैं । (१८) परेषां गुणदोषेषु, दृष्टिस्ते विषदायिनी। स्वगुणानुभवालोकाद्, दृष्टिः पीयूषवर्षिणी ॥१६॥ दूसरों के गुण दोषों पर रही हुई तेरी दृष्टि विष की वृष्टि करने वाली है । स्वगुण का अनुभव करने के प्रकाश युक्त दृष्टि अमृत की वृष्टि करने वाली है । (१६) स्वरूपादर्शनं२ श्लाघ्यं, पररूपेक्षणं वृथा । एतावदेव विज्ञानं, परंज्योतिः प्रकाशकम् ॥२०॥ स्वरूप का दर्शन श्लाघनीय है, पर रूप का ईक्षण वृथा है; इतना ही विज्ञान परम ज्योति का प्रकाशक है। (२०) स्तोकमप्यात्मनो ज्योतिः, पश्यतो दीपवद्धितम् । अन्धस्य दीपशतवत्, परंज्योतिर्न बह्वपि ॥२१॥ तनिक आत्म-ज्योति भी दृष्टि युक्त को दीपक की तरह हितकर है। अन्चे के लिये एक सौ दीपकों को तरह अधिक ज्योति भी दूसरों के लिये हितकार नहीं है । (२१) १. सज्जाश्च ते : परं। २. स्वरूपादर्शनं । जिन भक्ति ] [ 63 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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