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________________ हो ! नौ निधियाँ एवं चौदह रत्नों से भी चक्रवत्तियों को जिस तेज की प्राप्ति नहीं होती, वह तेज परम ज्योति के प्रकाश को प्राप्त हमारी आत्मा के अधीन है । (११) दम्भपर्वतदम्भोलि, ज्ञानध्यानधनाः सदा । मुनयो वासवेभ्योऽपि, विशिष्टं धाम बिभ्रति ॥ १२ ॥ निधिभिर्नवभीरत्न -श्चतुर्दशभिरप्यहो । न तेजश्चक्रिणां यत्स्यात्, तदात्माधीनमेवहि ' ॥ ११ ॥ दम्भ रूपी पर्वत को तोड़ने के लिये वज्र तुल्य, ज्ञान तथा ध्यान रूपी धन वाले मुनि इन्द्रों से भी अधिक तेज को धारण करते हैं । ( १२ ) श्रामण्ये वर्षपर्यायात्, प्राप्ते परमशुक्लताम् । सर्वार्थ सिद्ध देवेभ्योऽप्यधिकं एक वर्ष के श्रमण पर्याय के द्वारा परम शुक्लता को प्राप्त मुनिवरों को सर्वार्थसिद्ध विमान के देवों से भी अधिक ज्योति उल्लसित होती है । (१३) १. नः 62 ] ज्योतिरुल्लसेत् ॥ १३ ॥ विस्तार युक्त परम ज्योति से प्रकाशित अन्तरात्मा वाले जीवनमुक्त महात्मा समस्त प्रकार की स्पृहा से रहित होते हैं । (१४) विस्तारिपरमज्योति, -द्यतिताभ्यन्तराशयाः । जीवन्मुक्ता महात्मानो, जायन्ते विगतस्पृहाः ॥ १४ ॥ वे आत्म-भाव के विषय में सदा जाग्रत रहते हैं, बाह्य भावों में निरन्तर सोये हुए रहते हैं, पर द्रव्यों के विषय में उदासीन रहते हैं और स्वगुण रूपी अमृत-पान के विषय में तल्लीन रहते हैं । (१५) जाग्रत्यात्मनि ते नित्यं, बहिर्भाविषु शेरते । उदास परद्रव्ये, लीयन्ते स्वगुणामृते ॥ १५ ॥ यथैवाभ्युदितः सूर्यः, पिदधाति महान्तरम् 1 चारित्रापरमज्योति, -द्यतितात्मा तथा मुनिः ॥ १६ ॥ उदित भानु जिस प्रकार घोर अंधकार का नाश करता है, उसी Jain Education International For Private & Personal Use Only [ जिन भक्ति www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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